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________________ वधाता ऐसा ! कब तक ? 141 उफ! अब यह वेदना सहन नहीं होती। स्वजनों का यह दुःख और नहीं देखा जाता, उनका यह परिताप। 'हे विधाता! अब तो मेरे जीवन का अन्त ही हो जाय। मुझे एक पल भी नहीं जीना। अरे, मृत्यु से आधिन कर मुझे अब तुम समाप्त कर दो... हमेशा के लिये इसे मिटा दो...।' शोक संतप्त भीमसेन आत्महत्या करने का मन ही मन विचार करने लगा। वैसे भीमसेन शान्त और समझदार था। जैन धर्म के ज्ञान व संस्कारों में पला हुआ था। फल स्वरूप अपने दुःखों के लिये उसने किसी को दोषी नहीं माना। अपने कनिष्ठ बन्धु हरिषेण को लेशमात्र भी दोष नहीं दिया। अलबत, वास्तविकता यही थी कि, हरिषेण ने अगर भीमसेन को ऐसे घोर संकट में नहीं डाला होता तो आज उसे दुःख के दावानल में जलना नहीं पड़ता। वह हरिषेण पर क्रोधित हो सकता था। परंतु ऐसा उसने कुछ नहीं किया, सारा दोष उसने अपने कर्मों को ही दिया। बराबर वह अपने ऐसे कर्मों के लिये पश्चाताप करता रहा। भीमसेन का साहस और धैर्य इस प्रकार टूट गया था कि वह अब जीने की लालसा ही खो बैठ था। बारबार मिलने वाली असफलताओं ने उसके मन को व्यथित कर दिया था। उसे यह भली भाँति ज्ञात था, कि मृत्यु को गले लगाने से मृत्यु प्राप्त नहीं हो जाती। और यदि संयोगवश ऐसा संभव हो भी जाये तो भी दुःखों से छुटकारा सम्भव नहीं। साथ ही और यातनाओं में कमी होने के बजाय और अधिक वृद्धि होने वाली हैं। वह ज्ञान शून्य हो चुका था। आषाढ़ की अमावस्या की रात्रि जैसी निराशा और हताशा का आवरण उसकी बुद्धि पर छा गया था। मात्र एक ही विचार बार बार उसके मन-मस्तिष्क में उठ रहा था : "मैं मर जाऊं... इस जीवन का अन्त कर दूं... हमेशा के लिये मृत्यु को गले लगा दूं।" प्रायः यह देखा गया है, कि शुभ विचारों का प्रभाव बहुत कम होता है। उन्हें सक्रिय होने में समय लगता है। जब कि अशुभ विचार क्रियान्वित होने में देर नहीं लगती अनादि काल के अभ्यास से यह मन अशुभ विचारों के जाल में शीघ्र फसा रहता है। तदनुसार भीमसेन ने शीघ्र ही मृत्यु वरण करने का निश्चय कर लिया। भूमि तक लटकती वृक्ष की जटाओं को उसने अपने गले के चारों ओर लपेटा और हवा में अधर झूलने लगा। जटाओं के कठोर बन्धनों के कारण उसका श्वास रूधने लगा। आँखे ऊपर चढ़ गयी। नसें तन कर फूल गई। रोम रोम खड़ा हो गया। रक्त का प्रवाह अवरूद्ध होने लगा। जीवन व मृत्यु के मध्य अब केवल दो पल का फासला रह गया था। गले के बन्धन से भीमसेन को असह्य वेदना होने लगी। परंतु इस वेदना की उसने तनिक भी परवाह नहीं की। इसके विपरीत वह वेदना को और / P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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