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________________ विधाता ऐसा ! कब तक? 135 सुशीला के दुःख, दर्द व यातनाओं का पारावार नहीं था। पति के विरह में वह सूखकर काँटा हो गई थी। उसका मन कई बार चंचल हो उठता था। देवसेन व केतुसेन उस समय उसके लिये एक मात्र आधार भूत बने हुए रहते। उन दोनों को देखकर ही उसका धैर्य बना हुआ था और वह समस्त दुःखों को समभाव से सहन कर रही थी। भद्रा सेठानी ने जबसे उन्हें कलंकित कर घर से निकाल दिया था, तब से सशीला गाँव के बाहर झौंपड़ी बनाकर रहने लगी थी। आसपास लोगों के घर काम करती, कहीं बर्तन माँजती, किसी के जल भरती, तो किसीके यहाँ कपड़े धोती। और कभी कभार पास में रहे कुम्हार के मिट्टी के बर्तन बेचने बाजार में जाती। और वहाँ चिल चिलाती धूप में बैठकर इन बर्तनो के बिकने का इन्तजार करती। इन सब कामों से जो मिलता उससे वह कठिनाई से परिवार का पेट पालती थी। कई बार तो पूरा पूरा दिन भूखे ही रहना पड़ता था। काम के लिये इधर-उधर मारे मारे घूमना पड़ता और काम न मिलने पर हार थक कर भूखे पेट ही सोना पड़ता। देवसेन व केतुसेन दोनों ही अब दुःखों के आदी हो गये थे। वे अब कभी किसी बात के लिये सशीला से अधिक आग्रह नहीं करते। रोते भी नहीं थे, बल्कि सशीला की ऐसी दयनीय दशा देखकर स्वयं रो पड़ते थे। किन्तु कभी कोई शिकायत नहीं करते थे। क्योंकि स्वयं के रोने से माँ को अधिक दुःख होगा यह भली भाँति समझते थे। ऐसी भीमसेन की सचाई से प्रसन्न होकर धन देते हुए शेठ। शेठ के अति आग्रह के सामने झुकता हुआ भीमसेन P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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