________________ नहीं जाऊँ बेटा! 103 "नहीं जाऊ बेटा!" भीमसेन भग्न हृदय सड़क के किनारे बैठ गया। अनगिनत चिन्ताओं के कारण उसका वदन मलीन हो गया था। मारे क्षुधा और तृष्णा के उसका शरीर जर जर दृष्टिगोचर हो रहा था। आँखें डबडबाई और अंग प्रत्यंग से थकान स्पष्ट झलंक रही थी। नौकरी चली जाने से वह अजीब परेशानी अनुभव कर रहा था। इस नगर में वह परदेशी था। सेठ लक्ष्मीपति ने दयावश उसे आश्रय दिया था। आज वह आश्रय भी सदा के लिये छूट गया था। और अब शायद ही कभी ऐसा आश्रय मिलने की सम्भावना थी। यह सोचकर वह बार-बार परेशान हो रहा था। इस नगर में अब दूसरा भला कौन उसे नौकरी देगा? रह रह कर यही एक चिन्ता उसे खाये जा रही थी। फलतः उसकी बुद्धि काम नहीं कर पा रही थी। वह संकल्प-विकल्प के महासागर में लगातार गोते लगा रहा था। मन ही मन अपने भाग्य को ही दोष दे रहा था। इस प्रकार वीतराग प्रभु का स्मरण करते हुए घिर आये संकट में पार उतरने की युक्ति खोज रहा था। तभी किसी आगन्तुक ने भीमसेन को ऐसी दयनीय स्थिति में फंसा देख सहानुभूति पूर्वक पूछा, “अरे भाई, तुम यों गलित गात, उदास होकर यहाँ क्यों बैठे हो? तुम्हारी सूरत से तो ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो तुम्हारे पर कोई भारी विपदा आन पड़ी हो?" Winni THUNIA आगन्तुक ने पूछा - "अरे भाई! आप ऐसे म्लान वदन यहां क्यों बैठे हैं? क्या कोई भारी विपदा आसमाँ से तुम्हारे ऊपर टूट पड़ी हैं? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust