________________ 102 भीमसेन चरित्र करूगा। मुझ पर एकबार आप अवश्य दया करे।" भीमसेन की बातों से सेठ का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होने तुरंत दो रूपये देते हुए कहा : "लो यह रूपये, फिल्हाल इससे काम चलाओ। इससे जो चाहिए वह खरीद लो।" किन्तु दो रूपये भला कहाँ तक चलते? भीमसेन ने एक रूपये के बर्तन व एक रूपये का अनाज आदि खाद्य सामग्री खरीदी। इस तरह थोड़े दिन और व्यतीत हो गये। परंतु जब एक पैसा भी शेष नहीं रहा, तब वह पुनः निर्धनावस्था में आ गया। अतः फिर सेठ के पास गया और दीन स्वर में उनसे कहा : "सेठजी आपके द्वारा प्रदत्त रूपये तो कभी के खर्च हो गये है और अब मेरे पास फूटी बदाम भी नहीं है। जबकि आज के युग में अर्थ के प्रति लुब्ध बना मानव स्मशान की साधना करने में भी आगे-पीछे नहीं देखता। हालांकि वयोवृद्ध, तपोवृद्ध और ज्ञान वृद्ध भी धनियों के द्वार तक प्रायः आशार्थी बनकर जाते हुए नहीं अघाते। मुझे रात-दिन भोजन की ही चिन्ता लगी रहती है। मैं व मेरा परिवार क्षुधित रहकर ही जीवन काट रहे हैं। अतः आप मेरे वेतन में थोड़ी वृद्धि ही कर दें तो बड़ा उपकार होगा। किन्तु सेठ ने इस बार दया नहीं दिखाई, बल्कि उसके हृदय को विदीर्ण करते हुए तुरन्त ही कहा : "देखो भाई! मैं अब तुम्हें एक कौड़ी भी नहीं दे सकता। जहाँ तुम्हें अधिक वेतन मिलता हो वहाँ तुम बेशक जा सकते हो। मैं तो तुम्हें मात्र दो रूपये ही दे सकता हूँ।" लक्ष्मीपति की बात सुनकर भीमसेन विचार मग्न हो गया। मन ही मन सोचने लगा : “सच ही तो है, कंजूस मनुष्य ऐसे ही होते हैं। 'चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाय' यह उनका सिद्धान्त होता हैं। लोहे के चने चबाना, सर्प के सिर से मणी उतारने जैसा दुष्कर कार्य करना, सौते हुये शेर को छेड़ना, हाथ पर पर्वत उठाना, तलवार की तेज धार पर चलना और हथेली में सरसों जमाना आदि बातें प्रायः असम्भव अवश्य है, परंतु फिर भी सम्भव हो सकती है। किन्तु कृपण से धन की आशा करना सदा सर्वदा असम्भव है। ऐसे कृपण पुरुषत्व हीन होते हैं। वे धन का उपभोग स्वयं तो कभी नहीं करते और ना ही उसका दान कर सकते हैं। विद्वत् जनों ने सत्य ही कहा है, कि धन वैभव विहीन व्यक्ति के लिये अग्नि में अपने प्राणों की आहुति देना सर्वथा उचित है। परंतु दयाहीन कृपण के आगे झोली फैलाना निरी मूर्खता है। और भीमसेन सहसा दूकान से बाहर निकल चिन्ता में खोया अनजानी राह पर चल पड़ा। उसके मन में अनुत्तरित हजारों प्रश्न उभर रहे थे। “अब कहाँ जाऊँ? क्या करू? बालकों के लिये भोजन की क्या व्यवस्था करू? अपने दुःख की बात किससे करू। भला मुझ पर कौन उपकार करेंगा? न जाने कब मेरे दुःखों का अन्त होगा?" और भविष्य की चिन्ताओं से घिरा वह एक स्थान पर सिर पर हाथ रख कर सुन्न होकर बैठ गया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust