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________________ आगमोबारक कृति संदोहे तापराधः फमठो, देवत्वे कर्मठो भवन् / क्षमाधरं श्रीपाश्र्व नो -पससर्ज क्रुधोबुरः 1 // 90 // क्रोधोत्थाप्रीतिशान्त्यर्थ , सर्वदेवनमस्किया / वा मताऽन्यथावादी, भवसागरगामुकः // 91 / / अगारिकोधशान्त्यर्थ, कुर्याद गच्छादहिर्गणी / मुनि मायां प्रयुज्यापि, यत् क्रोधो धर्मबाधनः // 92 // क्रोधवैरविघातेन, दृष्ट्वाऽर्चामईदादिगा यतिधोंम् / स्तुवन्ति शासनं लोका, हेतुरर्हः समुन्नतौ // 93 // जैने धर्म शमं सारं, क्षाम्यन्त्वितीर्यते ततः / शाम्येद्योऽसौभवेद्धर्मी, क्वचिद्धर्मो द्वयोरपि // 94 // क्षन्तव्यं क्षामयेच्चान्यं, क्रोधवैरप्रशान्तये। भूयोभूयः इति प्रोक्तं, कल्पे पर्युषणाभिधे // 25 // अन्वेषते स्वभावं स, यः स्याच्छान्तिमहोदधौ / मग्न इत्युच्यते भूरिकृत्वो जैनैः क्षमापनम् // 96 // वैरान्वितो यथा स्कन्धोऽमीचिधर्मविराधकः / भीतश्चेत्तं ततो घेहि, क्रोधवैरोज्झितं मनः / // 97 // कृषौं चित्रे यथा भूमेः, शुद्धिरावश्यिकी मता / धर्म गुणे तथा चेतः-शुद्धिरित्थं विचार्यताम् // 98 // धान्यक्षेपो यथा शुद्ध, तले निष्कोपजन्तुषु / गुणबीजानि रोह्यन्ते, विनयादृतमानसैः // 99 // ये देवा गुरवो ध- / H, शापभापितविष्टपाः। वन्ध्या गुणैश्च धर्मश्च, धर्मिभिर्वर्ण्यतां गताः // 100 // लोके लोकोत्तरे मार्ग, शिक्षासम्भविनोगुणा / ग्रहणासेवने शिक्षे, लभ्ये नाविनयैर्नरैः // 101 // यथारकुशं गजो मत्तो, मेंठं वर्म च नो गणेत् / मानमत्तोऽसुमानेव, धर्मान् देवान् गुरूंस्तथा // 102 // जातिलाभकुलैश्वर्यधुतरूपबलेनिजम् / प्रेक्षमाणोऽधिकंनम्रो, न परे तद्गुणाः कुतः / / 103 / / आधातुं निश्चयं सोऽलं, कर्तव्यस्य भवेत् क्षमः / यः साध्यस्य गुणाझ्यत्वं, निर्दोषत्वं च साधितुम् // 104 // नाविनीतस्य शिक्षा स्याद, गुणदोषमतिर्न ताम् / विना, विनयहीनस्तन्नाधातुं निश्चयं क्षमः // 105 // न श्रेयान्निश्चयोऽझस्यानिश्चिते न शुभा क्रिया / आदाय विनयी शिक्षा, निश्चयात् साधयेद्वितम् / // 106 // संशयी हन्यते विघ्नहन्ति तान्निश्चयी दृढान् / मत्वेति प्रथम कार्यः, सकणैः कार्यनिश्चयः // 107 // साध्यनिश्चयवान् हेतू-नवश्यं साध्यसाधकान् / अन्वेषते च सुप्तस्य, मुखे होतोर्न मूषकाः // 108 // उपायानामर्पि-शानं, नान्तरा शिक्षकान् भवेत् / तदुपायविबोधार्थ,तज्ज्ञान्नम्रः समाश्रयेत् // 109 // हेतुझान भवेत्कार्यि, हेतूनां व्यापृतिर्यदि / शून्याऽऽसेवनया सा स्यात् , केकिनृत्यमिवाफला // 110 // तज्ज्ञसेवोद्भवोऽभ्यासो | भवेदासेवनागतः। समुपासीत विनयी, तज्ज्ञान्मानं विहाय तु // 111 // मिश्चयशानकार्याणि, समेति विनयी नरः / अधिनीतो नरोऽरण्य-महिष इव दुर्जनिः // 112 // लोकोत्तरेऽध्वनि प्राप्या, गुरोरत्नत्रयी पुनः / प्रायो। हमवश्यं साध्यसाधकान् / बोधार्थ तज्ज्ञान्नम्रः समान मायनिधयवान् हेतू-नवश्यं सातान्निश्चयी दृढान् / मत्वातप्रदाय विनयी शिक्षा, निधयात मस्तन्नाधातुं 10 // तज्ज्ञसेवोन्या विनयी / PP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036408
Book TitleAgamoddharak Kruti Sandohasya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyasagarsuri
PublisherMithabhai Kalyanchandji Pedhi
Publication Year1962
Total Pages42
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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