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________________ आगमो- द्वारक- कृति सन्दोहे // 34ir गमिध्यन्ति,धमैरेमिः सदाहतैः // 669 // आधा चतुष्टयी सेव्या,स्वयं धर्माणिमिन रै।। द्वितीयादेशके शिष्येऽप्यपेक्ष्या / धर्मसिद्धये // 670 // अनादिकालतो जीवैर्धाम्यद्धिर्भवसागरे / बादरत्वादिसामग्री, नाल्पपुण्यैरिहाप्यते // 671 // यतिधमो. चक्रथालये पुनमुक्तिधिग्जातीयस्य दुर्लभा / यथा तथा भवाम्भोधौ, मग्नानां साधनं पुनः // 672 // प्राप्तिधा- पपेशा रणपर्यन्ता, सामठ्या दुःखदारुणा / वित्त्वेति मानवैर्भाव्यं, तस्साफल्यकृती यतैः // 673 // धर्मस्याहों भवेत्प्राणी, यो न रक्तादिदूषणः / रक्तो द्विष्ठोऽमतिर्धान्तो, धर्म श्रोतुम नहि // 674 // अर्थी सामर्थ्ययुग्योग्यो, धर्मऽधिक्रियते नरः॥ पुगलानन्दरोधेन, सर्वरेतैः क्षमो भवेत् // 675 // धर्मनिश्रेणिमूलं तत्, सङ्गत्यागो बुधैर्मतः / फले धर्मस्य देहस्यानादिः सलोपि वय॑ते // 676 // निर्जरा तत्त्वतो मुक्ते, पार्थक्यमिदमेव / एषा देहाश्रितस्यैव, सन्मुक्तस्येयमुत्तमाः // 677 // कर्मसत्ताभृतां कर्म-क्षयों निर्जरणं मतं / हृदस्य हांसवन्मुक्ति-रससाका सछातना // 678 // आदिमध्यान्त्यकल्याण-लक्षणो धर्म इष्यते / यथा. तथा भवत्येषोऽसङ्गो धर्मस्तथा तथा // 672 // तस्वतोऽनी मुणस्थानेष्वारोहन् - क्रमतस्त्यजेत् / अतस्वादिगत सङ्ग, प्रान्त्ये निःसङ्गताम्येला 680 // -सम्य पलाम उद्युक्तो, जीवो मिथ्यावघातमात / सनं छिनस्यसत्तत्वेऽनन्तानुबन्धिमेश्नात् // 681 // सङ्गस्तत्वे म सङ्गात्मा, यत्सोऽसङ्गत्वहेतवे / अपथ्यमध्यपथ्यं म, तद्यन् व्याधे क्षयं करम् / / 682 / हत्वा क्रोध मदमायां, लोभ जन्तुः समाश्रितः / चित्स्वरूपाप्तये धर्म, सत्यशौचत्तपोयमैः // 683 // परं निस्साताभावो, नागतस्त्या गभावनात् / चेन्मुक्तः सम्भवों दूर निदानोपहतात्मवत् // 684 // सोऽहाँ दर्शनमायाप्तुं सजते विषयेसु नः / भवामिनन्दिता त्यक्ता, येन यश्चात्मसन्मुखः // 685 // एष रत्नत्रयीमार्गाऽन्त्यावतें प्राणिनो भवेत् / नैनन्ध-शासन वीक्ष्य, जिनोऽतो मार्गदः स्मृतः // 686 // मार्गमेनमनुप्राप्य, लिस्सङ्गं त्यांगकामुकः / शुद्धया प्रचुरया सम्यग्दर्शन प्राप्तुमर्हति // 687 // नातः शुद्रादिदोषाणां, सम्भवो. मार्गगे नरे। इच्छा तस्याव्यये स्थाने, सर्वसतविवर्जिते // 688 // धर्ममूलं मतं स्यागः, सङ्गः संसारमूलिकः / तदन्त्यावर्तगः प्राणी, शिवेप्सुन परत्र तु. Im689 // अतोऽव्यय पर्द, वाञ्छन् , य इन्द्रियसुखान्वितम् / पुनर्गर्भागमारक-यो नावागतोऽसुमान् // 690 // धर्माद घेवाद् गुरोर्वाञ्छन् / देवमयभवाधितम् / धर्मे यो वर्तते जन्तु-मध्यो नैव स.विश्वयात् // 691 / श्रापका- MIRIN. .P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036408
Book TitleAgamoddharak Kruti Sandohasya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyasagarsuri
PublisherMithabhai Kalyanchandji Pedhi
Publication Year1962
Total Pages42
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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