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________________ - inesinायातमा पदेशः कर्मणां तेषां, चित्रा. एव विशेषांच, न चेत् स्यादान्त निकाचित कर्म, क्षेयं तद्भोगमन्तवाच / / राधोदाहप्रत्यला // 646 // प्रवृतिदेहिनां चित्रा, परिणामविशेषतः / कर्म बध्नन्ति तब्धि, प्रकृत्यादिविशेषतः // 647 // काचिद्योगात् कषायाच्च, प्रमादबलयोजितात् / सानुबन्धादाग्रहाच्च, काचित्काचिद्भवेत् पुनः॥६३८।। लेषितं स्यासतः कर्म, किञ्चिद् बद्धं निघातितम् / परमां तु दशा प्राप्तं भवेत् कर्भ निकाचितम् // 649 // क्षयेपि। कृति कर्मणां तेषां, चित्रा.एव हि हेतवः। भोगनिन्दालोंचनाद्या, यथा रोगस्तथौषधम् // 650 // निकाचितानां पापानां, सन्दाहन संयोभोगमन्सरा सामान्येन विशेषातुन चेत् स्यादान्तरा किया // .651 // तथाभव्यत्वपाकश्चन , नियत्या-दि। // 30 // कृतों भवेत् / आग्रंन्थिमेंदमांमुक्तेर्यथा कालं सम भवेत् // 652 // तदा निकाचितं कर्म, क्षेयं तद्भोगमन्तरा / स्याता वे आन्तरेंतत्र, करणे तत्क्षयक्षमे / / 653 // सम्यक्त्वं लभ्यते याये, द्वितीय चरणं परं / द्वयोरप्यनयोरात्मा, वीर्यप्राचु| र्यभासुरः॥६५४ // तत्र ध्यानं भवत्युग्रं, तप आभ्यन्तरं च तत् / निकाचिताघनिस्तारे, तप एवावलम्बनम् // 655 // चतुर्थाद्यवमौदर्य- ममिग्रहो रसोज्झितिः / कष्टं काये च लीनत्वं, षोढ़ा बाह्य तपस्त्विदम् // 656 // अभ्यन्तर दोषशुद्धि-विनयः परसंस्क्रिया / पाठो ध्यानं समुत्सर्गः, षोडेति द्वादशं तपः // 657 // दृष्टिचारित्रमोही। द्राक, क्षपयित्वा श्रयेद् गुणौ / सम्यक्त्वं चरणं चेति, करणे कर्म दुर्बलम् // 658 // तपांसि योगकरणे, नित्वा न च / | शिवोंद्यते / जीवे ते कर्मणां शेषः, कथं क्षेप्योऽव्ययाऽर्थिभिः // 659 // बन्धो रुद्धो यतो योग-करणे प्रतिबन्धिते। अयोगकरणश्वाङ्गी, ध्यानात् कर्म विनाशयेत् // 660 // सर्वसंवरमाविष्टो, व्युच्छिन्नक्रियतो मुनिः / - णिसिक्तं निघात्यैनः, प्राप्नोति पदमव्ययम् // 661 // न चेद् ध्यानं तदा कर्म-क्षयाय क्षममिष्यते / क्षयान्निम्शेपंपापाना-मयोगस्य कथं शिवम् ? // 662 // सयोगकरणानां स्याद्, ध्यानमैकायमान्तरम् / योगरोधस्त्वयोगानां, ध्याने तल्लक्षणद्वयम् // 663 // निश्चयज्ञानवृत्तीनां, सामर्थ कर्मरोधने / अघानां शोधनायाऽऽयं, ध्यानं तत्तप उच्यते // 664 // प्रकाशन विदस्तत्त्वं संयमस्य च गोपनम् / शोधनं तपस्तत्त्वं, सदृष्टेरव्ययं त्रिभिः // 665 // साधयेत् संवरेणाङ्गी, बन्धाभावं यथाक्रमं / निर्जरा तप आसानां, तळ्यानं परमं सपः // 666 // चिसं सक्तं न गेहादी, नचे भीतं मृतेरपि / योग्यालम्बनसंसक्तं, स्थिरं ध्यानतया मतम् // 667 // अयोगिनो मुखे सर्व-संवरोन परं पदम् / / सर्वकर्मच्छिदो ध्यान-स्यान्ते स्यात् पदमव्ययम् // 668 // एवं मोशं गता जीवा, अतीतेऽनन्तसङ्ख्यकाः / भविष्यति / un Gun Aaradhak Trust // 30 //
SR No.036408
Book TitleAgamoddharak Kruti Sandohasya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyasagarsuri
PublisherMithabhai Kalyanchandji Pedhi
Publication Year1962
Total Pages42
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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