________________ कृति आगमोयो यः स्यात्तदन्वेषणतत्परः / ब्रह्मचारी संयमी च, नैव भोगादियित्रभुक // 603 / / ज्ञात्वाऽहानिमिन्द्रियाणां, यतिधर्मोयोगी ध्याने शुमे स्थितः / यथाशक्ति तपः कुर्वन् , क्षिणोति कर्म काचितम् // 604 // तपो नियामकं तन्व द्वारक पदेशः इन्द्रियाणां च यन्मनः / प्रवृत्तमपि सद्ध्याने, समाकर्षन्ति तान्यलम् // 605 // क्रोधो मदो भयं लोभो, धार्यन्ते मनसि ग्रहात् / तन्विन्द्रियाणि गृहन्ति , मनस्तद्वारकं तपः // 606 // पापाः किमु समे जाता, बुद्धे / सन्दोहे कि बुद्धता, जनौ / वीतरागस्य नो जन्मेति श्रुतं सर्वपार्षदम् // 607 // रागद्वेषमहामोहा-पूर्णो जन्तुः // 28 // -प्रजायते / तपसा झानम्वृत्तयुजा दग्ध्वाऽमलो भवेत् // 608 // जीवेन पुद्गलासक्त्याऽशानाद् बद्धं पुरा धनम् / प्राप्ताङ्गपुद्गलेऽमोहात्तपसा किं न दह्यते ? // 609 // शान्तं दान्तं मनः कर्म, ध्यानेन झिपति क्षणात् / तपसा शान्तदान्तं कि मगं तत्रापराध्यति ? // 610 // शरीरेण सुदान्तेन, मनो दान्तं न चान्यथा / किमु आरण्यगो गौः स्यात् , क्वापि धर्तुं धुरं क्षमः // 611 // शरीरेण न सोढा चेहःखं कथं वशे मनः / | वशे . मनसि कः कायदुःखादुद्विजते जनः ? // 612 // भीतश्चेत्त्वं कायकप्टाद्, ध्यानं किं तव. सुन्दरम् | | नो चेत्ते तपसा किन्नु, कष्टरूपेण साध्वसम् // 613 / / तपसो भीरुतां धुत्वा, श्रिते ध्यानेपि सा दृढा / उष्ट्र: वाक्यान्निषिद्धो ना, प्राक्तमेवानुधावति // 614 // शस्तं ध्यानं तदेव स्याद, यत्र भयकणिका नाही कायदुख तपस्त्रस्तोऽहंसि ध्यानं कथं शुभम् ? // 615 // केवल कायदःखेन, कुत्रोक्तं तप आगमे? | योगेन्द्रियकषायाणा, | लीनताऽप्यागमे तपः ॥६२६॥विविक्तशय्यासनिको, गोचरादक्षसंयमी। ध्यानाहश्चत्कथं चैषाऽवस्था सौख्येम / गम्यते ? // 617 // यथा भटो रणं यास्यद्विविधार्तिसहो भवेत् / कर्मभूपजयार्थी सन् , तपसा कि न भाव्यते / // 618 // दुःखस्योरो ददद् योधः, शस्त्रास्त्रबलधारकः / शत्रुसैन्यं पराजित्य, लभते निर्मलं जयम् // 619 // परीषदोपसर्गाणां, तपसंश्च व्यथां दधत् / ध्यानसंयमशस्त्रास्त्रो; जित्वा कर्म शिवं व्रजेत् // 620 // अनभ्यासी। | यथा योधः, क्लीबः शत्रोः समागमे / तथाऽदान्ततनुः साधुः, क्लीबो व्याधिसमागमे // 621 // नराणां मरणा | // पाने, यद् दुःखं तद्वचोऽतिगम् / अनभ्यस्ततपःकष्टोऽरेऽरेरे शब्दमुच्चरेत् / / 622 // ध्यानं चेत् स्वकृते सोस्थ्यात्तपः कण्टेन निश्चलम् / ज्याध्यातंकोत्थिते दुस्खे, कथं स्थाता स्थिरतामधीः // 623 // सोढव्यं कर्म // 28 // 18 P. Ac. Gunratnasuri M.S. Vun Gun Aaradhak Trust AAR