________________ तिवेदकषायायैरजियों विबिंधा भुवि // 51 // जीवानी पुलानी चा. योगाधर्मादिवस्तुनः / कालपुद्गलजीवाना, भागमो- पटक द्रव्येषु सिद्धथति // 515 // संकषायांकषायाणां, शाननाद्यष्टकर्मणाम् / मनोवाकायजाद्योगांदाश्रयो बन्धमू यतिधों। द्धारक- मिका // 516 // कर्माणूनां गृहीतानां, क्षीरनीरवंदात्मनि / मिथ्यात्वाद्यैरसं काल, बन्धो निर्धार्य बन्धनम् ॥५१७कृति / आगच्छत् कर्म रोद्धव्यं, धर्मः क्षान्त्यादिमिः सदा / विविधं च तपः कृत्वा, क्षेयं प्राग्बद्धकर्म तु // 518 // संसा--10. सन्दोहे जा र भात्तदाभ्याम, धर्म्यशळे शिवाप्तये / सदानन्दचिंदापूर्ण, शिव जन्मान्तकोज्झितम् // 519 / / एषामला स. 24 // सप्ततत्त्वी, पुण्यपापे तु साधने / श्रद्दधाति नसें ह्येवं, स्वभावाद्वा गुरोगिरा // 520 // मतिश्रुतावधिमन:- पर्याय केवला-विदः / क्रमों (तासू सरं श्रुतं लब्ध्वा , चारित्रेण--शिवं व्रजेत् // 521 // येऽमुंमागे न बुद्धास्ते, जंगुः। शीलं श्रुतं द्वयम् / प्रधानगौणभावेन, हाऽशाना, कतमा दशा? // 522 // तृप्तिरारोग्यमाप्ति-स्तीरं राज्यं जा यो यशः / न केवलेन वृत्तेन, शानेनान्यतरेण वा.॥ 523 / / ये केवलेन बुद्ध्वैवं, सत्यं धर्म फलान्वितम् / उत्तमोत्तमतां प्राप्ता-~स्ते लोकेभ्यो जगुस्तकम् // 524 / सूक्ष्मान्तरितदूराजानीते केवलात्मना / सत्यस्तित्केवलं राग-द्वेषांशुचिपरिक्षयात् // 525 // सर्वेऽपि वादिनः स्वेशान्, सर्वज्ञान सत्यवादिनः / ऊचुः परं द्वयं तत्स्याच्छुचावात्मनि नापरे // 526 // मालिन्यापगमः शौचं; द्वयमापेक्षिकं त्वदः / एको मलो न सर्वेषां, शौचमेक भवेत्कथम् ? // 527 // ज्ञाननादीनि कर्माणि,,चिदानन्दमयात्मनः / मलं तस्य तु शौच स्या-दव्यये संस्थितिः पदे // 528 // रागद्वेषौ चारित्रे, शाने विस्मरणादिकम् / सम्यक्त्वे संशयाद्याश्च, मलो नाशे तु शौचता // 529 // 1 // दुर्भ शानमर्थानां, सत्यं तत्रापि देशना / शौचेनैव यथाशात-मशौचो विपरीतवाक / / 530 // सत्यवादैषिणा कायें, पुरः शौचे परीक्षणम् / दोषा अष्टादशाता, यस्मात् स.परमः शुचिः / / 531 // मलाः सत्येऽशता क्रोधो, मानः शाठ्यं लुमिर्मदः ।.रागोऽरागास्वपिः शोकोऽली चौर्य भयं वधः // 532 // मात्सर्य प्रेम रमणं, हास्यमेते मृषाखनिः / नतद्रहिते सत्यं, तद्वान्नापूज्यतां व्रजेत् // 533 // एवं सर्गस्थितिप्रान्तैषियित्वा मृषा जनम् -1 ई. "ives - श्वरत्वं समातान्ति, नभ्योऽशौचोऽपरो भुवि // 534 // न समक्षं परेषां स्यात्, स्त्रीसनी नर उत्तमः / ये तु मूर्ति खिया युक्तां, स्थापयन्ति स्वका मलात् // 535 // तहकप्रेमरसा रक्ता, अयुः सार्वतां कथम् ।-आत्माद्य |24|| MP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust