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________________ x.. रा तन्वन् साधुषु वात्सल्यं, चक्री जात इहादिमः। विदन्नप्येतदाघ्रातो, लोमेन, न करोषि तत् // 382 // चतः आगमो २धर्ममेदेषु, दानमादौ प्रकीर्त्यते / लोमेन हार्यते तच्चेत्, काऽऽशा तवाव्यये पदे // 363 // श्रावकाणां व्रतेषग्रं, मतं / यतिधर्मा'. . द्धारक दानं शिवार्थकम् / लुब्धः साधुरकुर्वस्तद्, भविष्यन्त्यां कथं भवेत् // 384 / हत्वाऽनन्तानुबन्ध्यादीन , सम्यक्त्वं पदेशः कृति शिवदायकम् / लब्ध्वाऽऽत्मरमणः त्वं सन् , मुने ! लोभ दधासि किम् ? // 385 // हित्वा दारान् धनं गेहान्. सन्दोहे लब्ध्वा मोक्षप्रदं व्रतम् / महाव्रतधरो जातो, मुने / लोभं दधासि किम् ? // 386 // अधीते जिनराहुक्ते, षटकाया॥१८॥ दिप्रदर्शके / श्रुते परीक्षितो गीतै-मुने / लोभं दधासि किम् ? // 387 // पर्यायक्रमसंप्राप्तं, प्रकल्पादि त्वयाधीतं / गीतार्थो. देशनाहस्त्वं, मुने !. लोभ दधासि किम् ? // 388 // स्वयं कार्यः परिहारो, यथावादीतथाकियः / हेयानामित्थमाम्नाते, मुने! लोभ दधासि किम् ? // 389 // ये त्वां श्रिताः (शिवो) गुणो-धुक्ताः शिवाय "स्पृहयालवः। तेऽनुक र आचारं, मुने! लोभं दधासि किम् ? // 390 // इच्छाकारादिकाः सामाचार्यश्चारित्रकारणम् / तिरश्चां चरणं नेतो, मुने! लोभं दधासि किम् // 391 // विनयः शासने मूलं, : विनयो मोक्षपादिका / महानिधेः समं लब्ध्वा, मुने! लोभं दधासि किम् // 392 // अतिशायीनि शास्त्राणि, प्राप्तानि कृपया. गुरोः / देवादीनां वरेऽतृष्णो, मुने ! लोभं दधासि किम् // 393 // पर्यायपरिणामाभ्यां, प्राप्तं शोधिकरं श्रुतम् / मेढीभूतोऽसि गच्छे त्वं, मुने! लोभं दधासि किम् // 394 // स्वरूंपरमणीसूय, बाह्य व्युत्सृज्य दुखदम्। आराधनासमायुक्तो, मुने ! लोभं दधासि किम् // 395 // प्रीत्यादिनाशको लोभो, विनयादिवानलः / गुणश्रेणिनिघाती स, मुने! लोभं दधासि किम् ? // 396 // लोभेन प्राणिनो भ्रान्ताः, पतिता मोक्षमार्गगाः / प्रमादवृक्षबीजंस, मुने! लोभ दधासि किम् ? // 397 // नेशश्चेद्धर्तुमेनं त्वं, मोक्षे तत्प्रापके धर / एतदेव हि वैराग्यं, यन्नाशस्तेन तस्य तु // 398 // बाह्येऽनित्ये गतायाते, भवे प्राप्येप्यनेकशः / बाह्येऽर्थ घता ते चेन्मोक्षाय किं तनुं त्यजेः ? // 399 / / कुरु तत्र मुने / लोभ, यल्लब्ध नहि त्यज्यते / अनन्तत्वात्पुनस्तत्र, नांशतोऽपि // 18 // प्रवर्तनम् // 400 // हतः क्रोधो हतो मानो, हता मायाऽर्थना हता। प्राप्तो धर्म परं दूरे, मोक्षात्सत्यो न चेदयम् // 40 // रत्नं वित्तव्ययेनातं, स्वर्णयुक्त्या विभूषितम् / आदर्शवत् परं मृष्ट, परं काचस्तदा किमु // 402 // आस्तिका Jun Gun Aaradhal Trust निधः समं लब्ध्वा, मुना लाभ दधासि किम् // 39 // // इच्छाकारादिकाः सामा
SR No.036408
Book TitleAgamoddharak Kruti Sandohasya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyasagarsuri
PublisherMithabhai Kalyanchandji Pedhi
Publication Year1962
Total Pages42
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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