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________________ यतिधर्मो आगमोद्वारककृति सन्दोहे // 14 // // 29 // चैत्यानि मोक्षसत्यानि, तीर्थान्यव्ययपादिकाः / चतुर्वर्णस्तु सहोऽयं, सार्थवाहोपमः शिवे // 295 // विराम्बानि जिनराजानां, भाव्यादों निजात्मनः / युद्धनीतिः समाचारो, मत्वेत्युद्यच्छति प्रधीः // 296 // नष्टोन स था लोभस्तथापि नास्य साधनं / देवादिभ्यो न सेवायां, चैष बाधाय कुत्रचित् // 297 // लोभोऽनन्तानुबन्थ्येष, देवे धमें गुरौ तथा / निरपेक्षो भवेत्तस्मात् , साधने बाधनेऽपि वा // 289 // अत एवोच्यते क्रुद्धः सदृछ नांगोविधायिनि / अपकारमनास्तत्तु, देवाद्याराधनाश्रितम् // 299 // रुद्धा मृगावती पुर्या, श्रीवीरस्य निनंसया / प्रद्योतेन जगामेवं, न धर्म वैरसाधनम् // 300 // एतल्लोभस्य साम्राज्य-मियंती भूमिमागतः / सहकार्याणि देवादेमुक्त्वासक्तो धरेत्तकम् // 301 // शेषलोभामिभूतात्मा, सद्दर नातो विरज्यति / आरम्भाद्भोगतोऽर्थाच्च, चारि प्रतिबन्धमाक // 302 // मनुते वक्ति लोकानां, पुरश्चायमिदं वचः / श्रद्धाप्रतीतिरुच्यह न नैन्थात् परं मतम् // 303 // नैर्ग्रन्थस्याभिलाषेण, दानाद्यां तनुते क्रियां। दुस्त्यजत्याग्ययं सदृग, मतो दुष्करकारकः // 304 // स्याल्लोभस्य यदा स्थित्याः, पल्यानां न्यूनतात्मनः / पृथक्त्वस्य तदा लोभ, व्रतवाधाकरं त्यजेत् ॥३०५॥संविभागे मतं दानं, न्यायागतधनोत्थितम् / अपरस्वं च चैत्यादौ, प्रदेयमिति कीर्त्यते // 306 // देवादिपुष्पपूजायां, यथा लाभस्य कीर्तनात् / महादानं तु तद्यत् स्याद्, गुर्वदत्तविवर्जितम् // 307 // धर्मार्थ न करोतीहां, धनोपार्जनवर्यने / / प्राप्त व्यये तु सद्योगं, सप्तक्षेत्र्यां स मन्यते // 308 // वित्तार्थ नास्य धोऽस्ति, वित्तं धर्मार्थमस्ति च / लुप्तायां लोभकाष्टायां, स्यादेवं वतिनां मनः // 309 // मनस्यस्य परो भाति, पदार्थः पारलौकिकः / चैत्यतीर्थसमुद्धारेऽर्थे व्ययते सङ्घपुष्टये // 310 // सङ्घाची प्रतिवर्ष स, वात्सल्यं समर्मिणाम् / यात्रात्रिकं श्रुतस्याची, स्नात्रं देवस्व: वर्चनम् // 311 // उद्यापनं यथाशक्ति, झानाधुत्सर्पणार्थकं / क्षणं गुरुप्रवेशेऽसौ, विधत्ते सङ्घतर्पणम् // 312 // दीक्षोद्यतं कुटुम्ब स्वं, निष्कामयति भावतः / क्षणं विधाय निस्वानां, सहायं वृत्तिसाधनः॥३१३॥ चैत्यार्चासङ्घकायेषु, शाने भक्त्या धनं वपेद् / दीने हीने पशौ दुःस्थे, यया लोभहानितः // 314 // समाचीर्णवतः श्राद्धः, प्रतिमाः स्वाः समुद्वहन् / लोभकाष्ठाप्रहाणाया-रम्भादीन् वर्जयेत् तथा // 315 // जीवितान्तसमापन्नो, लोभ व्युत्सृज्य सर्वथा। तीयें बनेऽजने देशे; संलिख्य मरणं श्रयेत् // 316 // अहो लोभस्य माहात्म्यं, यद् द्वादशवती धरन् /
SR No.036408
Book TitleAgamoddharak Kruti Sandohasya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyasagarsuri
PublisherMithabhai Kalyanchandji Pedhi
Publication Year1962
Total Pages42
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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