________________ आगमोद्धारक यतिधों कृति पदेशः सन्दोहे. // 13 // | संसारवर्तिनः सर्वे, भ्राम्यन्तेऽनेन निर्दयम् / / 272 / / क्षीणमोहा-जिनाः सवें, शानावरणसंक्षयात् / तेषां सार्वश्यमप्येते, वीतरागा लुमेः क्षये / / 273 / / प्रावल्याच्चास्य मोहस्य, कथ्यते केवलोद्भवः / कषायाणां क्षये सर्व-शानं प्राप्यत ईश्वरैः // 274 // द्विमासकनकोत्थानो, न कोट्या निष्ठतां गतः / लोभोऽयं तदरं. पूर्व-मेष नैव प्रसज्यते // 275 // कार्षापणशतं वाञ्छन्नादौ लब्धे पुरः पुरः। वाञ्छन् नायं नजेन्नाशं, प्राप्य देवेन्द्रतां पुनः // 276 // इन्द्रा स्तत्तद्विमानार्थ, कलहायन्त आत्मना / इति श्रुतगिरं श्रुत्वा, त्यजेल्लोभ न को बुधः ? // 277 // सामान्येन समे | जीवा, लोभवार्धिप्लवा यतः / आहरदेहखश्वासवन्तः सर्वे तदाश्रयात् // 278 // परं पञ्चाक्षसञ्चित्वे, प्राप्ते लोभाकुरा घनाः / अन्धो देहाश्रयापत्यग्रह एषां सदाग्रहः // 272 // व्यवहारपथं यातो, जीवो लुभ्यति कीर्तये / कीर्ति च मनुते साध्यां, लक्ष्म्या नत्वन्यसम्भवाम् // 280 // मत्वैवं पूर्णयत्नेनाद्रियते लक्ष्मिहेतवे / 'यस्यास्तिस्य मित्राणी'-त्यादिसंस्कृतचेतनः // 281 // धनोपार्जनरक्तोऽसौ, लीनः प्राप्ते धने. भृशं / जन्मनोऽस्मात् परं जन्म, भाव्यसौ प्रेक्षते नहि // 282 // लक्षणं सर्वतन्त्राणां, वाक्यर्धर्मस्य निश्चितम् / प्रेत्य दुर्गतिमुद्ध्वस्य, धर्मः कुर्याच्छुभां गतिम् // 283 // यदार्थलोभो मन्दः स्यात्तदा धर्मादरो भवेत् / अत एवोक्तमाप्तैन्निर्लोमे धर्मसंश्रयः // 284 // हृद्याधाय परं जन्म, त्यक्त्वा लोभ सृजन क्रियां / धार्मिकी स्यादभव्यो बा, जीवो भव्यत्वभागपि // 285 // चरमावर्त्तवयङ्गी, मोक्षार्थी नेतरःपुनः / नैर्ग्रन्थं वचनं ह्यर्थ, इत्यसौ मन्यते हृदि / / 286 // पुरो नैर्मल्यमागच्छन् ,परमार्थ मनुते तकत् / उदग्रवीर्यसंयुक्तो, धर्म दानादिकं श्रयेत् // 287 // क्षीणानन्तचतुष्कोऽसौ, मिथ्यामोहस्य नाशतः / बद्धलक्षोऽव्यये शेष, मनुतेऽनर्थकारणम् / / 288 // नैनन्थे वचने लीनः, पुरस्कुर्याच्छिवं पदं / सर्वत्र दानशीलादौ, देवाद्याराधनास्वपि // 289 // अपुत्रा स्वामिना नुन्ना, सुलसा नाकिनोदिता / मोक्षं. मुक्त्वा न मेऽन्येहेत्युवाचायं सतां नयः // 290 // आस्तिक्यामनुकम्पायुक, स्याद् सम्यक्त्ववत्यपि / समग्रसंसृतेः खिन्नो, मोक्षमात्रार्थनः सुटक // 291 // प्रशान्तवाहिताऽतोऽस्य, संसारे देहसाधनः / मनुतेऽतोभवे सारं, साधनं जैनशासने // 292 / / अतो नायं गुरोधर्माद्देवाद् भोगैकसाध्यदृक् / भोगाप्त्यै न विधत्तेऽयं, स्वप्ने गुर्वादिबाघनम् // 293 / / सारभूतां मन्यतेऽसौ, सप्तक्षेत्री, धनादितः / प्रत्यहं पोषमाधत्ते, तेरस्या मोक्षभावना मारा घनाः / अन्धा. पतः / आहरदेहखश्वासागर श्रुत्वा, त्यजेलो प्राप्य देवेन्द्रतः पुनः याध्या, लक्ष्म्या नवा एषां सदाग्रहः // तदाश्रयात् // 27 बुधः ? // 277 // 26 // इन्द्राम व्यसौ प्रेक्षते वाहतचेतनः // २८३मवाम् // 280 // म व्यवहारपथं याता, पञ्चाक्षसमित्य, मान समे / / So, लीनः प्राप्त पते लक्ष्मिहेतवे मात कीर्तये / / सस // 13 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust