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________________ आगमो द्वारककृति सन्दोहे // 12 // अन्तिः साधवः शक्रा-दिकृतां भूतिमाश्रिताः // 250 // कर्म सम्बन्धमात्राच्चेत्सिद्धाः किं कायसदिनः / / क्षेत्र यतिधमो कालो गतिलिङ्ग, सिध्यत्सु किं न साध्यते // 251 // लोकस्याग्रं गताः सिद्धा, धर्मास्तिकायसङ्गताः / अधर्माकाशसम्बद्धा, एव तत्र न किं स्थिताः ? // 252 / / पहिलो नौचितीमञ्चेत् , कार्यसिद्धेः परामुखः / निर्वस्त्रो बहुवस्त्रो वा, नोपायस्य पथेपि सः // 253 // तथा नग्नाटमार्गस्य, नेता मूछों गतः पुरा / रत्नकम्बल आवि. | टो, धर्मोपकरणं जही // 254 // लोभत्यागेन लाभस्य, त्यागः परं मुनेः पदम् / लाभत्यागेन लोभस्य, त्यागस्तु मू . | खेतास्पदम् / / 255 / सम्भाब्यानर्थपातं तु, क्षुभ्येत् क्रुद्धः शठो मदी। लुब्धो शात्वापि लोमेन, तत्रात्मानं समुत्क्षिपेत् // 256|| स्वल्पकालात्रयस्त्वाद्या, लोमे तु चिररात्रिता। क्षिप्रनाश्याः परे ह्येष, न नश्यति भवान्तरे // 257 // नश्येत् | क्रोधः प्रणामेन,मानः सन्मानसाधनात् / माया बुद्धिप्रयोगेण, लोमस्तु तैः प्रवर्धते // 25 // पातालकूपसादृश्य, लोमे यत्पूरितः पुनः / पुरःपुरो नवं वाञ्छन् , पूरितुं नैव शक्यते // 259 // पूर्व प्रयःसुखोच्छेद्या, यदेकस्मिन् गुणे मुनिः। युगपत् छिनत्ति सत्तात-स्त्रीनपि श्रेणिगत्वरः // 260 // लोभो दुरछेद आप्तो यन्नवमं स्थानकं मुनिः / खण्डान् कृत्वाऽपि नोच्छेत्तुमेकाकिनमलं.भवेत् // 261 // अवमं नवमं हित्वा, दशमं स्थानमागतः / छिनत्ति खण्डखण्डेन, लोमें दुश्छेदताऽस्य तत् // 262 // छित्वैवं शमितोऽप्येष, दण्डादिकसमाश्रयात् / उद्भय पातयेत् साधु, यावदाद्या गुणस्थितिम् // 263 // श्रेणिमूर्धस्थितं साधु-माद्यं गुणं. समानयन् / लोभश्चकास्ति योधेपु, मोहस्यैष भयङ्करः // 264 // त्यक्तं गृह व्रतं चीर्ण-माचार्यादामतं श्रुतं / लब्धा श्रेणिः परावीर्याद, गतं लोभात् सम हहा। // 265 / / / अधे न किञ्चिदस्त्यस्य, दण्डादेः परमात्मना / अकाण्डलोभलब्धेन, पाते सैवावलम्बितः // 266 // निर्माहो मु-। च्यते चक्री, यः षट्रखण्डधराधिपः / लोभाघातो न रंकोऽपि, प्रत्युतोपैति दुर्गतिम् // 267 // आदर्शभवने प्राप, केवलं भरताधिपः / रङ्को वैभारगः प्राप, सप्तमी गतपात्रकः // 268 // त्यागवीय समुत्पन्ने, लोभहान्या मनीषिणाम् ।त्याज्ये न कोऽपि मेदोऽस्ति, बहोऽल्पीयसोऽर्थतः // 269 // मुनित्वात्यै विधियः स्याच्छादिष्टः। समो द्वयोः / स त्यागोपि विवेकोत्थः, समो बहल्पगः पुनः // 270 // शीत्र बहुभवन् लोभः, स्वल्पोऽप्येष स्व. भावतः / विश्वस्यान्न ततोऽल्पेऽस्मिन श्रेणेस्वल्पोपि पातयेत // 271 // दुष्परा लोभगये, सदेवैरपि माना / ॥श्शा PP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus चाः परमात्मना न कोऽपि, प्राण त्यागवीय विधियः स्थाऽप्येष स्व MatesDEMINoti
SR No.036408
Book TitleAgamoddharak Kruti Sandohasya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyasagarsuri
PublisherMithabhai Kalyanchandji Pedhi
Publication Year1962
Total Pages42
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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