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________________ MST / अन्तऽपि आगमो यतिधर्मों पदेशः द्धारक कृति सन्दोहे // 15 // बदरास्वादलुब्धः स, भाविभद्रो वनं गतः / / 317 // त्याज्यं सर्व परेतेन, जानन् , लोभाज्जनः पुनः। अन्तेऽपि न व्ययेदर्थ, व्युत्सृजेन्न च धर्म्यपि // 318 // मृता नैके च लोभान्धा, जातास्तिर्यग्भवेष्वपि / अधिष्ठाय निधि खातं, निजान्नन्ति कुटुम्बिनः॥३१९॥ श्रावका अपि लोभान्धा, गृहन्ति धार्मिकं धनम् / सहसाऽतिचरन्त्यात्तान्यपि मौग्ध्यातानि च // 320 // मातापित्रादिनोफ्तं स्वं, धर्माथें न व्ययन्त्यपि / कीर्तिलोभान्धितात्मानो, विधित्सन्ति परं स्वकम् // 321 // कृत्वा स्वं क्षेत्रसाच्छ्राद्धो, लोभोषप्लुतचेतनः / तद् व्ययत्यन्यथाकारं, कृत्वा वा न व्ययेदपि // 322 // लाभभूपकृतामाज्ञां, कृत्वा शिरसि किं जनाः / न कुर्वतेऽग्निपातादि वान्तसन्मार्गवासनाः // 323 / / देवधर्मगुरुभ्योऽपि, किं न दुह्यन्ति लोभतः / दानस्यापि प्रसङ्गे यत्, स्वं वदन्त्यन्यदीयकम् // 324 // अकल्प्ये लोभतः क्षिप्त्वा, कल्प्यं दत्ते न साधवे / एवं चेदन्नदानादौ, लोभः किं न परत्र सः? // 325 // संलिख्यानशनस्थोऽपि, श्राद्धो लोमेन किं नहि - / इहलोकाशंसनाद्य-तिचारान् कुरुते मुधा ? // 326 // प्रपित्सवः परिवज्यां, किं लोभान्धितचेतनाः / उपेक्ष्यावसरं तस्या, नं मग्ना भवसागरे? // 327 // लोभसाम्राज्यमुलं, ब्रह्मचार्यपि शक्तिमान् / परिव्रज्यां समादातुं, सबैराग्योप्यलं न हि // 328 // पत्यौ मृते विशन्त्यग्नि, निःस्पृहा वनिता भवेत् / प्रविवजिषुः स्वे किंन, लोभान्मुञ्चति लालसाम् / / 329 / / सवैराग्यः समीक्ष्यार्थी, पौरसङ्घनृपैः कृताम् / संन्यः / स्यन् म्रियमाणो वा, लोभात् किं तत्र नो सजेत्?॥३३०॥ लोभान्धः स्वस्य सत्कारं, मीलयेच्छासनोन्नतिम् / परेषां गणिनामेनं दृष्टिरागतया भणेत् // 331 // स्वरूपं दृष्टिरागस्य, लोभनिनष्टलोचनः / न वेत्ति प्रतिबन्धं यदसौ कर्याजिनाश्रये // 332 // स्वस्य सङ्के फुले गच्छे, साधौ लोभविमोहितः / दूषयन्नपरान् सत्यान, महामोहं न किंवजेत? // 333 // लोमेनास्थाय साध्वादीन् , स्वान् परांस्तु-जिघांसति / दुष्षमाकालजं पाप, तस्मिन्नेव पचेलिमम् // 334 // लोमेन गणलुब्धानां, मृषोक्तिः पाठव्यत्ययः / प्राच्यनाशो नवोत्पादः, शासनस्य विडम्बना // 335 // भाव्यनन्ताघ्रसाम्राज्या-मिथ्याष्टिः सुरः क्वचित् / चेत्सान्निध्यकरः किंन, क्लेशिन्यास्तनयोद्भवः? // 336 // गोशालस्य यथा तेजो-लेश्या संसारवर्धिनी / शासनस्य तु द्रोग्भ्री च, लुब्धैश्वर्य सदा तथा // 337 // गणलब्धो यथा गोष्ठा-माहिलो निववो ऽजनि / तथा गच्छादिलुब्धानां, साधुतापि भयङ्करी // 338 // यथा लुब्धो PP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036408
Book TitleAgamoddharak Kruti Sandohasya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyasagarsuri
PublisherMithabhai Kalyanchandji Pedhi
Publication Year1962
Total Pages42
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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