________________ आगमोद्धारक कृति. वा, यततेऽन्धाभशठानिमः // 183 // अन्तरायोदयाल्लाभ-मलध्वाऽपि प्रकाशितुम् / स्वस्यापोतुमन्यसत सतं यतते शठः / / 184 // ख्यात्यर्थी ख्याति मायावी, दान पुण्यं पराक्रमम् / असत्यं सत्यमन्यस्य, दुतेऽन्धं गण / यन् जगत् // 185 // धर्माख्याय्यपि लोकानां, रंकमृद्धं पृथग्भणेत् / धर्म मार्गपरः साधुर्यथा निःस्वे तथेश्वरे।। 186 / / ' व्यसनानि यथा लोके, स्वागमानि पुर पुनः / स्वभावरूपमायान्ति, मायापीयं तुरन्तगा // 187 // कृत्वाल्पं दर्शितुं भूरि, धार्मिकाणां मनो यदि / शीले दाने व्यये तीथे, माया गच्छति कुत्र न 1881 ईश्वरोऽपि धनं लोकाद्, गोपितुं पृथिवीतले / निखाति मायया तेन, गीताख्या प्रणिधिनिधौ // 189 // आर्जवेन ततो मायां, हत्वा शुद्धात्मतां श्रयेत् / जाताजाता निहन्तव्या, मायेत्युक्तं बहुश्रुतैः // 190 // अविश्वास्यो भवेन्मायो, यतिधर्मोपदेशः / सन्दोहे // 9 // तत्त्वबोधने / मूलं विश्वास एषोऽहै, विश्रम्भं न सृजेच्छठः // 19 // तैरश्चीं गतिमाप्स्यन्ति, नूनं मायाविनो नराः। रम्या रत्नत्रयी यत्र , नायाति श्रुतिगोचरम् // 193 // शुद्धं कृत्वा मनस्तस्माद् , यावत्कैवल्यमाप्यते / गुर्वायत्तेन तावद्भो, निर्माय स्थीयतां पथि // 194 // प्रमादा विनिवर्तन्ते, गुणे षष्ठे मुनेः पुनः। दुर्वारा सप्तमे माया, गुणे याऽप्यनुवर्तते // 195 // माया नान्यैः प्रतिकार्या, यथा क्रोधादयःपुनः। मायैवास्याः प्रतिकारोऽतोऽप्रमसा गतास्तकाम् / / 19 / / दुष्पयुक्तस्य दम्भस्य, शासनावर्णकारिणा / दम्भ एवौषधं तेना-प्रमत्तस्तं चिकीर्षति // 197 // रक्षिका शासनस्यात्र, सा नैवान्योपघातिका / अत एव न मत्तोऽसौ, मायां कुर्वन् सुसंयमी // 198 // वञ्चयन्ते जनान् मायापरा लोका न जानते / वञ्चितः स्यात् परो नो वा, स्वात्माऽवश्यं तु वञ्चितः // 199 // तदमायो मुनिभूत्वा स्वान् दोषान् विधिवदिशेत् / गुरुभ्यो येन चारित्रं, निरघं स्याच्छिवावहम् // 200 // क्षान्त्या लब्धो मृदुत्वेन, संस्कृतो गुणसङ्ग्रहात् / आर्जवेन धृतः शुद्धो, धर्मः किं न शिवाप्तये // 201 // परे देवत्वमिच्छन्तः, कुदेवत्वमघिश्रिताः / अशक्ता निग्रहं कर्तु, लोकानां कर्मधारिणाम् // 202 // तथापि मायया लोकान, विप्रतार्य,मृषोक्तिमिन 6 वयं निग्रहकर्तारोऽप्रीतेष्वित्युद्गृणन्ति ते // 203 // युग्मम् // निग्रहश्चेत् कृतस्तेन, तद्भक्ते: निग्रहः कुतः। तदम३क्तश्च किं लोको, निग्रहोज्झितविग्रहः // 204 // स्वस्वकर्मभुजो लोकाः, स्वस्वर्मकृतः पुनः। करिमनुयात्येतत्, कर्म- परा लोका न जानेवान्योपघातिका / अतरावर्णकारिणा / दम्भ एवोषध नः। मायैवास्याः प्रतिकारोऽतर्वारा सप्तमे / वञ्चितः स्यात् पवन मत्तोऽसौ, मायां कुर्वन् मत्तस्तं चिकीर्षति // 19 // येन चारित्रं, निरघ वातयः // 20 // परे, देवत्वावतार्य मृषोक्तिमिः 9 // Jun Gun Aaradhak. Trust . P.P.AC.Gunratnasuri M.S.