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________________ 294 समकित-प्रवेश, भाग-8 धर्म दर्श-ज्ञानमय चेतना, आतमधर्म बखानि / दया-क्षमादिक रतनत्रय, यामें गर्भित जानि / / निर्जरा : ज्ञानस्वभावी आत्मा ही संवर (धर्म) मय है। उसके आश्रय से ही पूर्व-उपार्जित' कर्मों का नाश होता है और यह आत्मा अपने स्वभाव को प्राप्त करता है। लोक : लोक (छ:-द्रव्य) का स्वरूप विचार करके अपनी आत्मा में लीन होना चाहिए। निश्चय और व्यवहार को अच्छी तरह जानकर मिथ्यात्व भावों को दूर करना चाहिए। बोधिदुर्लभ : ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, अतः वह निश्चय से दुर्लभ नहीं है। संसार में आत्मज्ञान को दुर्लभ तो व्यवहार नय से कहा गया है। धर्म : आत्मा का स्वभाव ज्ञान-दर्शनमय है। अहिंसा, क्षमा आदि दशलक्षण धर्म और रत्न-त्रय सब इसमें ही गर्भित हो जाते हैं। 'जिसे लगी है उसी को लगी है'.... परन्तु अधिक खेद नहीं करना। वस्तु परिणमन शील है, कूटस्थ नहीं है, शुभाशुभ परिणाम तो होंगे। उन्हें छोड़ने जायेगा तो शून्य अथवा शुष्क हो जायेगा। इसलिये एकदम जल्दबाजी नहीं करना। मुमुक्षु जीव उल्लास के कार्यों में भी लगता है, साथ ही साथ अन्दर से गहराई में खटका लगा ही रहता है, संतोष नहीं होता। अभी मुझे जो करना है वह बाकी रह जाता है-ऐसा गहरा खटका निरंतर लगा ही रहता है, इसलिये बाहर कहीं उसे संतोष नहीं होता और अन्दर ज्ञायकवस्तु हाथ नहीं आती, इसलिये उलझन तो होती है, परन्तु इधर-उधर न जाकर वह उलझन में से मार्ग ढूँढ़ निकालता है। मुमुक्षु को प्रथम भूमिका में थोड़ी उलझन भी होती है, परन्तु वह ऐसा नहीं उलझता कि जिससे मूढ़ता हो जाय। उसे सुखका वेदन चाहिये है वह मिलता नहीं और बाहर रहना पोसाता नहीं है, इसलिये उलझन होती है, परन्तु उलझन में से वह मार्ग ढूँढ़ लेता है। जितना पुरुषार्थ उठाये उतना वीर्य अंदर काम करता है। आत्मार्थी हठ नहीं करता कि मुझे झटपट करना है। स्वभाव में हठ काम नहीं आती। मार्ग सहज है, व्यर्थ की जल्दबाजी से प्राप्त नहीं होता। -बहिनश्री के वचनामृत शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम / बीजूं कहिये केटलुं ? कर विचार तो पाम / / -आत्मसिद्धि 1.pre-earned 2.rare 3.include
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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