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________________ समकित-प्रवेश, भाग-8 293 है और व्यवहार-से' पंचपरमेष्ठी। लेकिन मोह के कारण यह जीव अन्य-पदार्थों को शरण मानता है। संसार : निश्चय से पर-पदार्थों के प्रति मोह, राग-द्वेष भाव ही संसार है। इसी कारण जीव चारों गतियों में दुःख भोगता हुआ भ्रमण करता है। एकत्व : निश्चय से तो आत्मा ज्ञानादि अनंत गुणों का एक अखंड-पिंड और शुद्ध ही है। कर्म के निमित्त की अपेक्षा कथन करने से अनेक विकल्प (मोह आदि) मय भी उसे कहा जाता है। इन विकल्पों के नाश से ही मुक्ति प्राप्त होती है। अन्यत्व : प्रत्येक पदार्थ अपनी-अपनी सत्ता में ही विकास कर रहा है, कोई किसी का कर्ता-हर्ता नहीं है। जब जीव ऐसा चिंतवन करता है तो फिर पर पदार्थ में ममत्व नहीं होता है। अशुचि : अपनी आत्मा तो निर्मल है, पर यह शरीर महान् अपवित्र है, अतः हे भव्य जीवों ! अपने शुद्ध-आत्म स्वभाव को पहिचान कर इस अपावन देह से ममत्व छोड़ो। आस्रव : निश्चय-दृष्टि से देखा जाय तो आत्मा केवल-ज्ञानमय है। विभाव भावरूप परिणाम तो आश्रवभाव हैं, जो कि नाश करने योग्य हैं। संवर : निश्चय से आत्मस्वरूप में लीन हो जाना ही संवर है। व्यवहार नय से उसका कथन समिति, गुप्ति और संयम रूप से किया जाता है, जिसे धारण करने से पापों का नाश होता है। निर्जरा संवरमय है आतमा, पूर्व कर्म झड जाय। निज स्वरूप को पायकर, लोक शिखर जब थाय / / लोक लोक स्वरूप विचारिके, आतम रूप निहार / परमारथ व्यवहार गुणि, मिथ्याभाव निवारि / / बोधिदुर्लभ बोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नाहिं। भव में प्रापति कठिन है, यह व्यवाहर कहाहिं / / 1.formally 2.other-substances 3.integrated-mass 4.existence 5.oneness 6.impurity
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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