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________________ 262 समकित-प्रवेश, भाग-8 औपशमिक भाव सिद्धों के तो होता ही नहीं, संसारी जीवों में भी सिर्फ औपशमिक सम्यकदृष्टि व चारित्रवान जीवों के ही पाया जाता है। प्रवेश : अरिहंत भगवान को संसारी जीवों में क्यों गिना ? आपने तो कहा था कि उनका भाव मोक्ष हो चुका है ? समकित : हाँ, ठीक ही तो कहा है। उनका भावों की अपेक्षा तो मोक्ष हो चुका है लेकिन द्रव्य (शरीर आदि) की अपेक्षा अभी भी वह मध्यलोक (मनुष्य लोक) में हैं, सिद्ध लोक (सिद्धालय) में नहीं। संसारियों के बीच में मौजूद रहने की अपेक्षा यानि कि अघातिया कर्मों का संबंध बाकी रहने की अपेक्षा से उनको संसारी कहा है। वहाँ अपेक्षा अलग थी, यहाँ अलग है। जैनी को तो अनेकांत और स्याद्वाद की ही शरण है। प्रवेश : कौन से भाव हेय हैं और कौन से भाव उपादेय हैं ? समकित : जीव की अशुद्ध पर्याय होने से औदयिक भाव हेय (छोड़ने लायक) हैं। जीव की आंशिक शुद्ध पर्याय होने से क्षायोपशमिक भाव प्रगट करने के लिये आंशिक उपादेय (ग्रहण करने लायक) हैं। जीव की शुद्ध पर्याय होने से औपशमिक और क्षायिक भाव प्रगट' करने के लिये सर्वथा उपादेय हैं। जीव का मूल-स्वभाव होने से पारिणामिक भाव आश्रय (ज्ञान, श्रद्धान व लीनता) करने के लिये परम उपादेय हैं। पारिणामिक भाव (निज स्वभाव) का आश्रय करने से ही क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक भाव प्रगट होते हैं। पूर्ण गुणोंसे अभेद ऐसे पूर्ण आत्मद्रव्य पर दृष्टि करनेसे ,उसीके आलम्बन से, पूर्णता प्रगट होती है। इस अखण्ड द्रव्यका आलम्बन वही अखण्ड एक परमपारिणामिक भाव का आलम्बन है। ज्ञानी को उस आलंबन से प्रगट होने वाली औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिकभावरूप पर्यायों का, व्यक्त होने वाली विभूतियों का वेदन होता है परन्तु उनका आलम्बन नहीं होता-उन पर जोर नहीं होता। जोर तो सदा अखण्ड शुद्ध द्रव्य पर ही होता है। क्षायिकभावका भी आश्रय या आलम्बन नहीं लिया जाता क्योंकि वह तो पर्याय है, विशेष भाव है, ध्रुवके आलम्बनसे ही निर्मल उत्पाद होता है। इसलिये सब छोड़कर, एक शुद्धात्मद्रव्य के प्रति-अखण्ड परमपारिणामिक भाव के प्रति-दृष्टि कर, उसी के ऊपर निरन्तर जोर रख , उसी की ओर उपयोग ढले ऐसा कर। -बहिनश्री के वचनामृत 1.present 2.remaining 3.achieve 4.achieve 5.actual-nature
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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