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________________ समकित-प्रवेश, भाग-7 233 अतः हे नाथ ! अब बस यही भावना है की आपके चरणों के साथ का वियोग' न हो। तात्पर्य यह है कि जिस मार्ग (आचरण) द्वारा आप पूर्ण सुखी हुए हैं, मैं भी वही प्राप्त करूँ। हे देव ! आपके गुणों का तो कोई अन्त नहीं है और संसार से पार उतारने का तो मानो आपका विरद् ही है / / 13 / / पाँचों इन्द्रियों के विषयों में लीनता और कषायें आत्मा का अहित करने वाली हैं। हे प्रभो ! मैं चाहता हूँ कि इनकी ओर मेरा झुकाव न हो / मैं तो अपने में ही लीन रहूँ, जिससे मैं पूर्ण स्वाधीन हो जाऊँ / / 14 / / मेरे हृदय में और कोई इच्छा नहीं है, बस एक रत्नत्रय निधि ही पाना चाहता हूँ। मेरे हित रूपी कार्य के निमित्त कारण आप ही हो / मेरा मोह-ताप नष्ट होकर कल्याण हो, यही भावना है / / 15 / / शशि शांतिकरन तपहरन हेत। स्वयमेव तथा तुम कुशल देत / / पीवत पीयूष ज्यों रोग जाय। त्यों तुम अनुभवतें भव नशाय / / 16 / / त्रिभुवन तिहँकाल मँझार कोय। नहिँ तुम बिन निज सुखदाय होय / / मो उर यह निश्चय भयो आज / दुख-जलधि उतारन तुम जहाज / / 17 / / तुम गुणगणमणि गणपति, गणतन पावहिं पार। दौल स्वल्पमति किम कहै, नमू त्रियोग संभार / / 18 / / सारांश- जैसे चन्द्रमा स्वयमेव गर्मी कम करके शीतलता प्रदान करता है, उसीप्रकार आपकी स्तुति करने से स्वयमेव ही आनन्द प्राप्त होता है। जैसे अमृत के पीने से रोग चला जाता है, उसी प्रकार आपके समान अपनी शुद्धात्मा का अनुभव करने से संसार-रूपी रोग चला जाता है / / 16 / / 1.seperation 2.fame 3.harm 4.inclination 5.independent 6.treasure 7.naturally 8.coolth 9.medicine
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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