________________ 234 समकित-प्रवेश, भाग-7 तीनों लोकों और तीनों कालों में आपसे सुखदायक (सन्मार्ग-दर्शक) और कोई नहीं है। आज मुझे ऐसा निश्चय हो गया है कि आप ही दुःखरूपी समुद्र से पार उतारने वाले जहाज हैं / / 17 / / आपके गुण-रूपी मणियों' को गिनने में गणधर देव भी समर्थ नहीं है, तो फिर मैं (दौलतराम) अल्पबुद्धि उनका वर्णन किस प्रकार कर सकता हूँ। अतः मैं आपको मन, वचन और काय को संभाल कर बार-बार नमस्कार करता हूँ / / 18 / / अज्ञान मूल / अनंत | अपूर्णता/अशुद्धता उत्तर | नव क्षायिक घातिया कर्म | चतुष्टय | घातिया कर्म | लब्धियाँ | अज्ञान | ज्ञानावरण कर्म | अनंत ज्ञान | ज्ञानावरण कर्म | क्षायिक ज्ञान / अदर्शन | दर्शनावरण कर्म | अनंत दर्शन| दर्शनावरण कर्म | क्षायिक दर्शन मोह मिथ्यात्व दर्शन मोह.कर्म | क्षायिक सम्यकत्व मोहनीय कर्म | अनंत सुख | राग-द्वेष | कषाय / चारित्र मोह.कर्म | क्षायिक चारित्र रहस सामर्थ्यहीनता| असमर्थता | अंतराय कर्म | अनंत वीर्य | दानांतराय कर्म | क्षायिक दान लाभांतराय कर्म | क्षायिक लाभ भोगांतराय कर्म | क्षायिक भोग उपभोगांतराय कर्म| क्षायिक उपभोग वीर्यांतराय कर्म | क्षायिक वीर्य अरि स्वभाव की बात सुनते ही सीधी हृदय पर चोट लग जाय। 'स्वभाव' शब्द सुनते ही शरीर को चीरता हुआ हृदय में उतर जाय, रोम-रोम उल्लसित हो जाय-इतना हृदय में हो, और स्वभाव को प्राप्त किये बिना चैन न पड़े, सुख न लगे, उसे लेकर ही छोड़े। यथार्थ भूमिका में ऐसा होता है। -बहिनश्री के वचनामृत 1.pearls 2.narration 3.focus