________________ 232 समकित-प्रवेश, भाग-7 तातें अब ऐसी करहुँ नाथ। बिछुरै न कभी तुव चरण साथ / / तुम गुणगण को नहिं छेव देव।। जंग तारन को तुव विरद एव / / 13 / / आतम के अहित विषय-कषाय / इनमें मेरी परिणति न जाय / / मैं रहूँ आप में आप लीन।। सो करो होऊँ ज्यों निजाधीन / / 14 / / मेरे न चाह कछु और ईश। रत्नत्रय निधि दौजे मुनीश / / मुझ कारज के कारण सु आप / शिव करहुँ हरहुँ मम मोहताप / / 15 / / सारांश- मैं अपनी ज्ञानस्वभावी आत्मा को भूलकर अपने आप ही संसार में भ्रमण' कर रहा हूँ और मैंने कर्मों के फल पुण्य और पाप को अपना मान लिया है। अपने को पर का कर्ता मान लिया है और अपना कर्ता पर को मान लिया है / / 9 / / और पर-पदार्थों में से ही कुछ को इष्ट मान लिया है और कछ को अनिष्ट' मान लिया है। परिणाम स्वरूप अज्ञान को धारण करके स्वयं ही आकुलित हुआ हूँ, जिसप्रकार कि हिरण मृगतृष्णा वश बालू को पानी समझकर अपने अज्ञान से ही दुःखी होता है। उसी प्रकार मैने भी शरीर की दशा को ही अपनी दशा मानकर अपने पद (आत्म-स्वभाव) का अनुभव नहीं किया और दुःख पाया / / 10 / / हे जिनेश ! आपको पहिचाने बिना जो दःख मैंने पाये हैं. उन्हें आप जानते ही हैं / तिर्यंच गति, नरक गति, मनुष्य गति और देव-गति में उत्पन्न होकर अनन्त बार मरण किया है / / 11 / / अब काललब्धि के आने पर आपके दर्शन प्राप्त हुए हैं, इससे मुझे बहुत ही प्रसन्नता है। मेरा अन्तर्द्वन्द्व समाप्त हो गया है और मेरा मन शान्त हो गया है और मैंने दुःखों को नाश करने वाली आत्मानुभूति को प्राप्त कर लिया है / / 12 / / 1.wander 2.favored 3.unfavored 4.restless 5.sand 6. experience 7.confusion