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________________ 208 समकित-प्रवेश, भाग-7 1. मन में पाप करने का विचार नहीं करना 2. मने में दूसरों से पाप कराने का विचार नहीं करना 3. मन में पोप की अनुमोदना नहीं करना 4. वचन से स्वयं पाप करने का नहीं कहना 5. वचन से दूसरों को पाप करने का नहीं कहना 6. वचन से पोप की अनुमोदना नहीं करना 7. काय से पाप नहीं करना 8. काय से (इशारे आदि से) दूसरों को पाप करने का नहीं कहना 9. काय से (इशारे आदि से) पोप की अनुमोदना नहीं करना ध्यान रहे अपनी भूमिका से नीचे का पुण्य कार्य भी पाप की श्रेणी में आता है। प्रवेश : मतलब? समकित : जैसे श्रावक के लिये नौ-कोटि से द्रव्य-पूजा करना पुण्य कार्य है क्योंकि उसके अणुव्रत होने से हिंसा का संपूर्ण रीति से त्याग नहीं है। लेकिन मुनिराज के लिये द्रव्य-पूजा करना पाप कार्य है, क्योंकि उनके महाव्रत होने से हिंसादि का संपूर्ण रूप से व नौ-कोटि से त्याग है। उसीप्रकार श्रावक के लिये नौ-कोटि से मंदिर, तीर्थ आदि का निर्माण करना पुण्य कार्य है लेकिन मुनिराज के लिये वह पाप कार्य है। यहाँ जो सबसे जरूरी बात यह है कि एक कोटि टूटने से सभी कोटि टूट जाती हैं। क्योंकि वे आपस में भावात्मक रूप से जुड़ी हुई हैं। प्रवेश : कृपया पाँचों महाव्रत के बारे में एक-एक करके समझाईये ? समकित : ठीक है ! 1. अहिंसा महाव्रतः नौ-कोटि से छः काय यानि पाँच स्थावर और त्रस जीवों की हिंसा का सर्वथा त्याग व्यवहार अहिंसा महाव्रत है। 1.thought 2.approval 3.completely
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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