________________ छठवे-सातवे गुणस्थान वाले मुनिराज के महाव्रत स्वयं में तीसरे स्तर की आत्मलीनता से प्रगट वीतरागता ही छठवें-सातवें गुणस्थान वाले मुनिराज का निश्चय महाव्रत है। निश्चय महाव्रत के साथ आवश्यक रूप से पाया जाने वाला पाँच पापों के संपूर्णरूप-से' त्याग रूप शुभ-राग व बाह्य क्रिया व्यवहार से महाव्रत कहने में आते हैं। प्रवेश : इस शुभ-राग का कारण क्या है ? समकित : मुनि को बाकी-रह-गया राग मात्र शुभ-भाव रूप होता है। श्रावक की तरह शुभ-अशुभ दोनों के अंश रूप नहीं। प्रवेश : व्यवहार अणुव्रत की तरह व्यवहार महाव्रत भी पाँच प्रकार के होते होंगे? समकित : हाँ, व्यवहार हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह के संपूर्ण रूप से त्याग रूप पाँच महाव्रत होते हैं जो कि निम्न हैं: 1. अहिंसा महाव्रत 2. सत्य महाव्रत 3. अचौर्य महाव्रत 4. ब्रह्मचर्य महाव्रत 5. अपरिग्रह महाव्रत पाँचवें गुणस्थानवर्ती श्रावक की प्रतिमाओं और व्रतों की तरह मुनिराज भी अपने महाव्रतों का नौ-कोटि से पालन करते हैं। प्रवेश : नौ-कोटि के बारे में डीटेल में समझाईये न। समकित : नौ-कोटि का मतलब है मन, वचन, काय से कृत, कारित, अनुमोदना पूर्वक कोई कार्य करना। मुनिराज ने नौ-कोटि से पाँच पापों के त्याग की प्रतिज्ञा की है यानि कि वे नौ-कोटि से किसी भी प्रकार का पाप नहीं करेंगे जो कि इस प्रकार है: 1.completely 2.remaining 3.fraction