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________________ समकित-प्रवेश, भाग-7 209 निश्चय से तो तीसरे स्तर की आत्मलीनता के बल से तीसरे स्तर तक के रागादि की उत्पत्ति नहीं होने देना यानि कि तीसरे स्तर की वीतरागता ही अहिंसा महाव्रत है और वही सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य महाव्रत है। मुनिराज अहिंसा महाव्रत का इतनी बारीकी से पालन करते हैं कि प्राण जाये लेकिन अपने उद्देश्य से बना हुआ आहार-जल तक नहीं लेते क्योंकि आहार आदि बनाने में हिंसा होती है। और यदि वह उनके उद्देश्य से बनाये जायें तो उनको उसमें होने वाली हिंसा की अनुमोदना का दोष लग जाता है। 2. सत्य महाव्रतः सत् स्वरूपी आत्मा में लीनता ही निश्चय सत्य महाव्रत है। नौ-कोटि से चारों प्रकार के झूठ (असत्य) का सर्वथा त्याग व्यवहार सत्य महाव्रत है। मुनिराज स्वप्न में भी सत् का अपलाप, असत् का उद्भावन, अन्यथा प्ररूपण और निंदनीय, कलहकारक, परपीड़ाकारक, हिंसापोषक, पर-अपवादकारक एवं आगम विरुद्ध आदि गर्हित-वचन व उभय-वचन नहीं बोलते। वह तो अधिकतर मौन ही रहते हैं और जब बोलते हैं तो हित (हितकारी), मित (नपे-तुले), और प्रिय-वचन ही बोलते हैं। यानि कि मुनिराज सत्य (हितकारी) तो बोलते हैं लेकिन वह नपा-तुला होने से कड़वा नहीं होता बल्कि मीठा (प्रिय) ही होता है। 3. अचौर्य महव्रतः पर-द्रव्य में लीन न होकर स्व-द्रव्य (आत्मा) में तीसरे स्तर की लीनता होना निश्चय अचौर्य महाव्रत है। नौ-कोटि से चोरी का सर्वथा त्याग व्यवहार अचौर्य महाव्रत है। मुनिराज मिट्टी व पानी भी बिना दिये नहीं लेते और जो वस्तु उनके योग्य नहीं है उसको देने पर भी नहीं लेते। यही मुनिराज का व्यवहार अचौर्य महाव्रत है। 1.strength 2.minutely 3.purpose 4.approval 5.disguise-words 6.half truth 7.silent 8.pleasant-words 9.bitter 10.suitable
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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