________________ समकित-प्रवेश, भाग-6 165 समकित : यदि शुद्ध-आत्मा के अनुभवपूर्वक, उसमें अपनापन करके, शुद्धात्मा की बाते करें तब तो ठीक है। लेकिन उसके बिना सिर्फ आत्मा की बातों ही का नाम सम्यकदर्शन नहीं है। ऐसा व्यक्ति, आत्मा की बातें ऐसे करता है जैसे किसी और की ही बातें कर रहा हो। वह कहता जरूर है कि आत्मा शुद्ध और शाश्वत है, लेकिन उसे अंदर से ऐसा अपनापन (प्रतीति) नहीं, कि वह शुद्ध और शाश्वत आत्मा (जीव-तत्व) मैं ही हूँ। बल्कि वह तो ऐसा मानता है कि यह शरीर आदि (अजीव-तत्व) ही मैं हूँ। शरीर की उत्पत्ति से ही मेरी उत्पत्ति और शरीर के नाश से ही मेरा नाश हो जाता है। शरीर गौरा और शक्तिशाली है, तो मैं गौरा और शक्तिशाली हूँ व शरीर काला और शक्तिहीन है तो मैं काला और शक्तिहीन हूँ। शरीर की क्रियाओं (हलन-चलन आदि) का कर्ता मैं हूँ और शरीर मेरी क्रियाओं (भाव आदि) का कर्ता है या फिर हम दोनों मिलकर तरह-तरह के कार्यों को करते हैं। इस प्रकार विपरीत (उल्टा) जानता है और मानता है। यानि कि अजीव के पुद्गल आदि भेद-प्रभेदों को तो शास्त्रों से जानता है, मानता है लेकिन यह सब जीव से यानि कि मुझसे जुदा हैं, ऐसा न जानता है, न मानता है। यही इसकी अजीव-तत्व संबधी भूल है। प्रवेश : जीव और अजीव तत्व संबंधी भूल तो लगभग एक ही है ? समकित : हाँ ! जीव को अजीव मानना या फिर अजीव की क्रिया (हलन-चलन) का कर्ता मानना जीव तत्व संबंधी भूल है। अजीव को जीव मानना या फिर जीव की क्रिया (भाव आदि) का कर्ता मानना अजीव तत्व संबंधी भूल है। दोनों एक ही बात हैं, बस कथन में अंतर है। एक बात जीव की तरफ से कही गई है, तो दूसरी बात अजीव की तरफ से कही गई है। इसलिये दोनों भूलें साथ-साथ ही पायी जाती हैं। प्रवेश : यदि कोई शद्ध और शाश्वत आत्मा (जीव-तत्व) की बातें ऐसे करता हो कि मैं ही वह शुद्ध और शाश्वत आत्मा हूँ, तो ? 1.occurance 2.destruction 3.fair 4.muscular 5.activities 6.types-subtypes 7.different 8.nearly 9.narration