________________ 164 समकित-प्रवेश, भाग-6 1. जीव-अजीव तत्व संबंधी भूलः यह जीव, भगवान की वाणी में जो व्यवहार-नय' से जीव का कथन आया है यानि कि जीव और शरीर आदि के संयोग से जो (असमान जाति द्रव्य) पर्याय रूप त्रस-स्थावर, संज्ञी-असंज्ञी, मनुष्य-तिर्यंच, देव-नारकी आदि रूप अस्थाई व पर-सापेक्ष भेद जीव के बताये हैं उनको तो जीव तत्व जानना है, मानता है लेकिन निराकुलता की सिद्धि में कारण, निश्चय-नय के विषयभूत ज्ञान-दर्शन आदि अनंत गुणों का एक अखंड-पिंड, हमेंशा एक-जैसा रहने वाला शाश्वत और शुद्ध आत्मा मैं हूँ और वही जीव-तत्व का यानि कि मेरा असली व स्थाई स्वरूप है ऐसा न जानता है, न मानता है। यही इसकी जीव तत्व संबंधी भूल है। प्रवेश : भाईश्री! भले ही हम निश्चय-नय के विषयभूत जीव तत्व के वास्तविक-स्वरूप के बारे में यह न मानते हों कि यही मैं हूँ लेकिन अध्यात्म शास्त्रों से हमने उसके बारे में जान तो लिया ही है। फिर आपने ऐसा क्यों कहा कि उसके बारे में न हम जानते हैं, न मानते हैं? समकित : ऐसा माने बिना कि यही शाश्वत और शुद्वात्मा मैं हूँ, सिर्फ शास्त्र से उस शाश्वत और शुद्ध आत्मा के बारे में जान-लेना, उसको नहीं जानने जैसा ही है। आत्मा के बारे में जान लेना और आत्मा को जान लेना, इन दो बातों में बहुत बड़ा अंतर है। क्योंकि सिर्फ आत्मा के बारे में शब्दों या विचारों से जान लेने से सम्यकदर्शन नहीं होता क्योंकि सम्यकदर्शन कहते हैं-शुद्धात्मा (स्वयं) में अपनापन होने को। आत्मा को सिर्फ शास्त्रों से जान लें, लेकिन यही मैं हूँ ऐसा अनुभवपूर्वक न जानें, न मानें, तो सम्यकदर्शन की प्राप्ति असंभव है। प्रवेश : तो क्या अध्यात्म शास्त्रों को पढ़कर, रातदिन आत्मा की बातें करनेवाले भी ऐसा नहीं मानते कि यही शुद्ध-आत्मा मैं हूँ ? 1.formal-narration 2.combination 3.unstable 4.actual-narration 5.eternal 6.actual-sapect 7.difference 8.thought-process 9.achievement