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________________ समकित-प्रवेश, भाग-5 143 समकित : संयोग' की अपेक्षा जैसे वीतरागता ही वास्तव में धर्म है। वीतरागता को ही धर्म कहना यह निश्चय नय का कथन है। जब तक पूर्ण वीतरागता न हो तब तक वीतरागता के साथ भूमिकायोग्य शुभ राग का भी संयोग पाया जाता है। अतः शुभ राग पर वीतरागता का आरोप करके शुभ राग को भी धर्म कह देना यह व्यवहार नय का कथन है। निमित्त-कारण की अपेक्षास्वयं में अपनापन करना (आत्मश्रद्धान) ही वास्तव में सम्यकदर्शन है। अतः आत्मश्रद्धान को ही सम्यकदर्शन कहना यह निश्चय नय का कथन है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के श्रद्धान और नव तत्वों के विकल्पात्मक निर्णय रूप शुभ राग, सम्यकदर्शन (कार्य) तो नहीं लेकिन सम्यकदर्शन (कार्य) में निमित्त-कारण है। लेकिन कारण का कार्य में आरोप करके, सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के श्रद्धान और नव तत्वों के विकल्पात्मक निर्णय रूप शुभ राग को ही सम्यकदर्शन कह देना यह व्यवहार नय का कथन है। ध्यान रहे ऐसा कथन करना (कहना) व्यवहार है लेकिन ऐसा यथार्थ मानना मिथ्यात्व है। प्रवेश : स्वयं में अपनापन करना निश्चय सम्यकदर्शन, स्वयं को जानना निश्चय सम्यकज्ञान और स्वयं में लीन होना निश्चय सम्यकचारित्र है और इनके साथ पाया जानेवाला तीनप्रकार का शुभ राग व तत्संबंधी क्रिया (1. सच्चे देवादि का श्रद्धान 2. सच्चे शास्त्रों का स्वाध्याय 3. सच्चा बाह्य आचरण) व्यवहार से सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र कहने में आता है, यह बात तो समझ में आ गयी लेकिन यहाँ स्वयं शब्द का क्या अर्थ है ? 1.company 2.actually 3.formal-cause
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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