SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 144 समकित-प्रवेश, भाग-5 समकित : यह बहुत अच्छा प्रश्न पूछा। स्वयं शब्द का स्वरूप समझे बिना हम कैसे स्वयं को जानेंगे, स्वयं में अपनापन करेंगे व स्वयं में लीन हो सकेंगे ? हमारा अगला विषय ज्ञान का ज्ञेय, श्रद्धा का श्रद्धेय और ध्यान का ध्येय हम स्वयं ही हैं। पर्याय पर दृष्टि रखने से चैतन्य प्रगट नहीं होता, द्रव्यदृष्टि करने से ही चैतन्य प्रगट होता है। द्रव्य में अनंत सामर्थ्य भरा है, उस द्रव्य पर दृष्टि लगाओ। निगोद से लेकर सिद्ध तक की कोई भी पर्याय शुद्ध दृष्टि का विषय नहीं है। साधक दशा भी शुद्ध दृष्टि के विषय भूत मूल स्वभाव में नहीं है। द्रव्य दृष्टि करने से ही आगे बढ़ा जा सकता है, शुद्ध पर्याय की दृष्टि से भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता। द्रव्य दृष्टि में मात्र शद्ध अखण्ड द्रव्य सामान्य का ही स्वीकार होता है। जिसे द्रव्य दृष्टि प्रगट हुई उसकी दृष्टि अब चैतन्य के तल पर ही लगी है। उसमें परिणति एक मेक हो गई है। चैतन्य-तल में ही सहज दृष्टि है। स्वानुभूति के काल में य बाहर उपयोग हो तब भी तल पर से दृष्टि नहीं हटती, दृष्टि बाहर जाती ही नहीं / ज्ञानी चैतन्य के पाताल में पहुँच गये हैं गहरी-गहरी गुफा में, बहुत गहराई तक पहुँच गये हैं साधना की सहज दशा साधी हुई है। द्रव्य दृष्टि शुद्ध अंतःतत्व का ही अवलम्बन करती है। निर्मल पर्याय भी बहिःतत्व है, उसका अवलम्बन द्रव्य दृष्टि में नहीं है। शुद्ध द्रव्यस्वभावकी दृष्टि करके तथा अशुद्धता को ख्याल में रखकर तू पुरुषार्थ करना, तो मोक्ष प्राप्त होगा। -बहिनश्री के वचनामृत राग की बात तो कहाँ रह गई ? परन्तु (जब) पर्याय की ओर का लक्ष छोड़ता है तब अंतर्मुख हुआ जाता है। -द्रव्य दृष्टि जिनेश्वर
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy