________________ 30] [ तर्कसंग्रहः रूपलक्षणम् ] [31 पृथक्-पृथक् मन सम्बद्ध है। मन को परिमाण की दृष्टि से अण- भेदात्सप्तविधम् / पृथिवीजलतेजोवृत्ति / तत्र पृथिव्यां सप्तपरिमाण वाला माना गया है / अणुपरिमाण वाला होने से नित्य भी विधम् / अभास्वरशुक्लं जले / भास्वरशुक्लं तेजसि / / है। मन से होने वाले प्रत्यक्षात्मक ज्ञान को मानसिक प्रत्यक्ष कहा ___अनुवाद -[1. रूप का क्या स्वरूप है और वह कितने प्रकार का जाता है। मन को मीमांसक व्यापक मानते हैं क्योंकि वह काल है ? ] केवल चक्ष इन्द्रिय से ग्रहण किए जाने वाले गुण को 'रूप' की तरह विशेषगुण से शून्य है। नैयायिकों का कहना है कि यदि मन कहते हैं। शुक्ल ( सफेद ), नील ( काला), पीत (पीला ), रक्त को व्यापक माना जायेगा तो सर्वव्यापक आत्मा के साथ संयोग नहीं (लाल), हरित (हरा), कपिश ( काला और पीला) और चित्र होगा और संयोग के अभाव में ज्ञान नहीं होगा। नैयायिकों के अनुसार (चितकबरा ) के भेद से वह रूप सात प्रकार का है। वह रूप गुण दो व्यापक पदार्थों का संयोग नहीं होता है, फिर भी यदि कथञ्चित् पृथिवी, जल और तेज द्रव्यों में पाया जाता है। उनमें पृथिवी में संयोग नान भी लिया जाए तो नित्य-संयोग होने से निद्रा में भी ज्ञान सातों प्रकार का रूप पाया जाता है। जल में अभास्वर ( न चमकने होता रहेगा। न्यायशास्त्र के अनुसार मन के अणरूप होने से निद्रा वाला) शुक्ल रूप तथा तेज में भास्वर (चमकीला एवं प्रकाशक) शुक्ल के समय वह हृदय की निकटस्थ पुरीतत् नाड़ी में चला जाता है और रूप पाया जाता है। तब उसका आत्मा के साथ संयोग न होने से ज्ञानादि नहीं होते। व्याख्या-जिस गुण का प्रत्यक्ष केवल चक्षु इन्द्रिय से होता है किश्च, दो ज्ञान युगपत् नहीं होते अपितु क्रमशः होते हैं। आणविक उसे रूप कहते हैं। यहाँ लक्षण में प्रशस्तपादभाप्य के लक्षण तत्र पदार्थ से एक साथ दो पदार्थों का सन्निकर्ष नहीं हो सकता, अतः मन रूपं चक्षुर्गाह्यम्' में दो पद जोड़े गये हैं-'मात्र' और 'गुण' / 'मात्र' अणुरूप है। नैयायिकों के इस सिद्धान्त के विरोध में भी कई तर्क शब्द न देने पर संख्या, परिमाण, संयोग आदि गुणों में अतिव्याप्ति दिए जाते हैं। आधुनिकशरीर विज्ञान से इस सिद्धान्त की पुष्टि नहीं हो जाती क्योंकि इनका प्रत्यक्ष चक्ष के अलावा त्वचा से भी होता होती है। मन के अणुरूप होने से वह अनुमेय है, जैसे-'सुखादि है। 'गुण' शब्द न देने पर 'रूपत्व' जाति में अतिव्याप्ति हो जाती साक्षात्कारः करणसाध्यः, जन्यसाक्षात्कारत्वाच्चाक्षुषसाक्षात्कार क्योंकि उसका प्रत्यक्ष मात्र चक्षु से होता है। इस तरह मात्र और वत / ' अथवा आत्मेन्द्रियार्थसन्निकर्षे ज्ञानस्य भावोऽभावश्च मनसो गुण पद देने से लक्षण दोषरहित है। यहीं यदि कोई कहे कि परमाणलिङ्गम् / ' (आत्मेन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष होने पर कभी तो ज्ञान होता है गत रूप का प्रत्यक्ष चक्षु से नहीं होता है, अतः लक्षण में अव्याप्ति और कभी नहीं, अतः मन की सत्ता सिद्ध होती है)। 'स्पर्शरहितत्वे / दोष है। इसके उत्तर में न्यायबोधिनीकार ने प्रकारान्तर से रूप राति क्रियावस्वम्' भी मन की परिभाषा दी गई है, परन्तु इससे / / 'I' का लक्षण किया है.--'त्वगग्राह्य-चक्षाह्य गुणविभाजकजातिमत्त्वम्' मन का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता है, शास्त्रीय दृष्टि से यह परिभाषा - अर्थात् त्वम् इन्द्रिय से अग्राह्य होते हए चक्षाह्मगूणत्यव्याप्यजाति अवश्य निर्दुष्ट कही जा सकती है। (रूपत्व ) वाला जो हो, वही रूप है। मपत्व जाति ऐसी है जो केवल [द्रव्यलक्षणप्रकरण समाप्त ] रूप में रहती है और वह रूपत्वजाति परमाणुओं में भी रहती है। इस 3. गुणलक्षण प्रकरणम् तरह कोई दोष नहीं है। [1. रूपस्य किं लक्षणं, कतिविधं च तत् ? ] चक्षुर्मात्र रूप के प्रत्यक्ष के लिए चार बातें होना जरूरी हैं-(१) ग्राघो गुणो रूपम् / तच्च शुक्लनीलपीतरक्तहरितकपिशचित्र- महत्परिमाण (परमाणुओं में इसका अभाव होने से उनके रूप का