________________ 32 ] [तर्कसंग्रहः रस-गन्धलक्षणे ] [33 प्रत्यक्ष नहीं होता है), (2) उद्भूतत्व (चक्षु की शुबलता में लवण ( नमकीन), कटु ( कडुआ), कषाय (कषैला, और तिक्त उद्भूतरूपता का अभाव होने से प्रत्यक्ष नहीं होता है), (3) / चरपरा) के भेद से छः प्रकार का है। वह रस पृथ्वी और जल में अनभिभूतत्व ( अग्नि की शुक्लता पार्थिव तत्त्वों से अभिभूत होने पाया जाता है। उनमें (पृथ्वी के मध्य और जल में) पृथिवी में से प्रत्यक्ष नहीं है ) और (4) रूपत्व ( रसादि में रूपत्व जाति नहीं छहों प्रकार का और जल में केवल मधुर ही रस पाया जाता है। है, अतः चक्षु से उनका प्रत्यक्ष नहीं होता है)। [जल में अम्ल आदि रसों की प्रतीति उपाधिभेद = पृथ्वी के न्यायदर्शन में रूप के सात भेदों में अन्तिम चित्र रूप की सविशेष परमाणुओं के सम्मिश्रण से देखी जाती है।] ' सिद्धि की जाती है। यह छ: रूपों का मिश्रण मात्र नहीं है, ' ____ व्याख्या - जिह्वा से जिस गुण को जाना जाता है, वह रस अपितु स्वतन्त्र रूप है। उनका कहना है कि रूप व्याप्यवृत्ति (पूरे / कहलाता है। यहाँ गुण पद रसत्व जाति में अतिव्याप्ति के वारणार्थ भाग में रहने वाला ) धर्म है। अतः एक ही पदार्थ में अनेक रूप एक है। जिह्वा से संख्या आदि का बोध न होने से मात्र पद की आवश्यसाथ नहीं रह सकते हैं। अतः चित्र रूप वाले पट के एक-एक अंश " |. कता नहीं है। परमाणगत रस में अव्याप्ति वारणार्थ पूर्ववत् जाति के रूप-ज्ञान से समस्त पट के रूप का ज्ञान नहीं कहा जा सकता है। घटित लक्षण होगा---'रसनाग्राह्यगुणत्वध्याप्यधर्मवत्त्वम् चित्र रूप अतः तद्गत चित्र रूप के ज्ञान के लिए चित्र रूप को पृथक् मानना की तरह चित्ररस नहीं माना जाता क्योंकि जिह्वा क्रमशः ही रखों आवश्यक है। नैयायिकों के सिद्धान्तानुसार अपने अंशों से पृथक् को जानती है, युगपत् नहीं। किञ्च, जिह्वा रस मात्र की ग्राहक होने समुदाय की कोई सत्ता नहीं होती है। से रसवान् द्रव्य की अप्रत्यक्षता का प्रश्न उपस्थित नहीं होता। अतः ये सभी रूप पथिवी में पाये जाते हैं। जल में केवल अप्रकाशक / जिह्वा अवयव के रस का ही ग्रहण कराके चरितार्थ हो जाती है। रत (अभास्वर) शुक्ल रूप है और तेज में केवल प्रकाशक (भास्वर) पृथिवी और जल में पाया है। पृथिवी में छहों रस हैं और जल शुक्ल रूप है। अन्यत्र रूप नहीं पाया जाता है। आधुनिक विज्ञान में केवल मधुर रस / नीबू के रस में जो अम्ल रस हैं वह पर्थिव अंश के अनुसार केवल तेज (प्रकाश) में ही स्वतन्त्र रूप माना जाता है, ... का ही है। पृथिव्यादि में कोई स्वतन्त्र रूप नहीं। . [3. गन्धस्य किं लक्षणं, कतिविधवसः ? ] घ्राणग्राह्यो [2. रसस्य किं लक्षणं, कतिविधश्च स:१] रसना- गुणो गन्धः / स द्विविधः-सुरभिरसुरभिश्च / पृथिवीमात्रवृत्तिः। ग्राह्यो गुणो रसः / स च मधुराम्ल-लवणकटुकषायतिक्तभेदात् / ____ अनुवाब-[३. गन्ध का क्या लक्षण है और उसके कितने भेद पविधः। पृथिवीजल वृत्तिः। तत्र पृथिव्यां षडविधः / जले हैं ? ] घ्राणेन्द्रिय (नासिका) से ग्रहण किए जाने वाले गुण को 'गन्ध' कहते हैं। वह गन्ध गुण दो प्रकार का है-(१) सुरभि मधुर एव / (सुगन्ध , और असुरभि ( दुर्गन्ध ) / गन्ध गुण केवल पृथिवी में ही अनुवाद-[२. रस का क्या लक्षण है और वह कितने प्रकार पाया जाता है। का है ? ]--रसना इन्द्रिय ( जिह्वा) से ग्रहण किए जाने वाले गुण व्याख्या-नासिका से गृहीत गुण का नाम है 'गन्ध'। इसकी को 'रस' कहते हैं। वह रस गुण मधुर ( मीठा ), अम्ल (खट्टा), व्याख्या रस के समान समझना चाहिए क्योंकि रसना और घ्राण