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________________ सिद्ध-सारस्वत गुरु-शिष्य के स्नेहिल सम्बन्धों का भी ज्ञान हुआ। अध्ययन के उपरान्त संस्कृत विभाग, कलासङ्काय में अध्यापिका के रूप में नियुक्ति होने पर मैंने गुरुदेव के दूसरे स्वरूप को पहचाना। जिस विभाग में मैंने अध्ययन किया था, उसी में गुरुजनों के मध्य अत्यन्त सङ्कोच का अनुभव हो रहा था। इस असहज वातावरण में जैन सर मेरे सहयोगी होने के साथ ही पथप्रदर्शक बने। 2004 का वह समय जब आपने विभागीय परिधि से उन्नत कर सङ्कायस्तर पर मेरी पहचान बनायी, जो अविस्मरणीय है। विभागाध्यक्ष तथा सङ्कायप्रमुख के पदों का निवर्हण गुरुदेव ने अत्यन्त कुशलता से किया। इन दोनों पदों पर एकसाथ प्रतिष्ठित होकर कार्य करते हुए अनेक कठिन एवं विषम परिस्थितियों में भी मैंने उन्हें अविचलित तथा शान्तचित्त देखा। अवश्य ही उनका यह व्यवहार उच्च पदों पर कार्य करने वालों के लिए अनुकरणीय तथा प्रेरणादायक है। उनके धैर्य धारण करने की क्षमता पर सहसा यह शोक स्मृतिपटल पर छा जाता है विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधिविक्रमः। यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्।। आप जैसे गुरु के प्रति संस्मरणों द्वारा ही कृतज्ञता प्रकट की जा सकती है। यह मेरे लिए सम्मान और गौरव का विषय है। अत: गुरुवर्य के पचहत्तरवें जन्मोत्सव पर मैं परमात्मा से उनके स्वस्थ तथा दीर्घायु जीवन की कामना करती प्रो. उमा देवी जोशी भूतपूर्व प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, काशीहिन्दूविश्वविद्यालय, वाराणसी। जैन विद्यानुरागी विद्वान् प्रो. सुदर्शन लाल जी मनुष्य जन्म पाना तो पुण्यार्जन का ही परिणाम है। वहाँ भी जैनविद्यानुरागी होकर जीवन जीना तदधिक पुण्यात्मा होने का परिज्ञापक है। पुरा विद्वानों की श्रृंखला में प्रो. सुदर्शनलाल जी आज कनिष्ठिकाधिष्ठित विद्वान् के रूप में हम लोगों के भाग्य से हमारे सामने मौजूद हैं। उनकी साधना से उनका जीवन तो धन्य हुआ ही है जैन विद्या को जानने-समझने की जिजीविषा रखने वाले शिष्यों को अपना जीवन धन्य करने का अवसर प्रो. जैन के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से मिल सका है। मैं भी जैनविद्या और संस्कृत-प्राकृत वाङ्मय का विद्यार्थी रहा हूँ। और आज भी हूँ। मुझे प्रसन्नता है कि मैं भी उनसे प्रत्यक्ष-परोक्ष विधि उपकृत होता रहा हूँ। प्रो. जैन जैनविद्या के मनीषी तो हैं ही प्राकृत एवं संस्कृत वाङ्मय के अधिकारी विद्वान् भी हैं। उनके अवदान का आकलन कर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से लोक जीवन को उपकृत करने के लिये जागरुक सामाजिकों द्वारा उनका सामाजिक अभिनन्दन करने का निर्णय सराहनीय है। इस अवसर पर उनके व्यक्तित्व को स्थायी बनाने की दृष्टि से उनका अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है, यह सराहनीय और अनुकरणीय उपक्रम है, मैं इसकी अनुमोदना करता हूँ। प्रो. जैन के व्यक्तित्व को नमन करते हुए तथा उनके कृतित्व के उपयोग से कृतार्थ होते रहने की भावना से उन्हें प्रणाम करता हूँ। मेरी कामना है प्रो. जैन स्वस्थ रहकर शतायु हों और साहित्यिक साधना करते रहें। उन्हें सादर नमन। प्रो. श्रेयांश कुमार सिंघई आचार्य एवं अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, जयपुर परिसर सिद्ध-सरस्वती के सारस्वत वरदपुत्र परम आदरणीय प्रखर मनीषी विद्वान् प्रो. सुदर्शन लाल जी मेरे दीर्घकाल से परिचित साथी हैं। उनका अभिनन्दन ग्रन्थ पं. प्रवर प्रतिष्ठाचार्य पं. विमल कुमार जैन सोरया के प्रधान सम्पादकत्व में वीतराग वाणी ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। इसलिये मुझे अत्यन्त हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। राष्ट्रपति सम्मान से विभूषित होने के समय ही यह कार्य सम्पन्न होता तो और अधिक प्रसन्नता होती। सबसे बड़े हर्ष का विषय है कि पुण्यों से उनको दो सरस्वती माताओं का आशीर्वाद और दुलार प्राप्त हुआ है। एक पुण्य है भौतिक देह को जन्म देने वाली माता सरस्वती 66
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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