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________________ कथन ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञान को परसंवेदी मानने पर अनवस्था या अन्योन्याश्रय आदि दोष होंगे। निश्चयात्मक ज्ञान में प्रमाणता का समर्थन : यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि निश्चयात्मक ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है, अनिश्चयात्मक अथवा निर्विकल्पात्मक (जिसे जैन दर्शन में ज्ञान की पूर्वावस्था या पदार्थ आलोचनरूप 'दर्शन', न्यायदर्शन में विशेषणविशेष्य के सम्बन्ध से रहित 'ज्ञान' और बौद्धदर्शन में अभिलापसंसर्गयोग्य प्रतिभास प्रतीति से रहित 'ज्ञान' कहा है ) नहीं, क्योंकि एक तो अनिश्चयात्मक ज्ञान से यथार्थ प्रतीति नहीं हो सकती है, दूसरे निर्विकल्पक में अर्थप्रकाश के सामर्थ्य का अभाव भी है। प्रमाण का फल: अब तक यह सिद्ध हो चुका है कि स्वसंवेदी निश्चयात्मक ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है और उसी में साधकतमता पाई जाती है। इससे भिन्न इन्द्रियादि में जो प्रमाणता लोकव्यवहार में तथा दर्शनशास्त्र में प्रचलित है, वह औपचारिक है, वास्तविक नहीं। इस सन्दर्भ में एक शंका जो अक्सर इन्द्रियप्रमाणवादियों के द्वारा उठाई जाती है उसका समाधान आवश्यक है। शंका: प्रमाण चूंकि करण है, अत: उसे फलवाला होना ही चाहिए अन्यथा उसमें करणता ही नहीं बन सकती है। ज्ञान को ही जब प्रमाण मान लिया जायेगा तो उसके फल (प्रमा) का अभाव हो जायेगा क्योंकि अर्थावबोध ही तो फल है। समाधान: ज्ञान को प्रमाण मानने पर भी जैन दर्शन में दो प्रकार का फल बतलाया है : 1. साक्षात् फल और 2. व्यवहित (परम्परा) फल। साक्षात् फल भी दो हो सकते हैं : 1. अर्थ प्रकाश अथवा 2. अज्ञाननिवृत्ति / " व्यवहित फल कई प्रकार का हो सकता है : जैसे-त्याग करने की बुद्धि, ग्रहण करने की बुद्धि, राग-द्वेष से रहित उपेक्षा बुद्धि, प्रीति तथा क्रम से पैदा होनेवाले ज्ञानों में पूर्व ज्ञान की अपेक्षा उत्तर ज्ञान / यहाँ अर्थ प्रकाश' को जो ज्ञान का साक्षात् फल बतलाया गया है वह यद्यपि ज्ञानरूप होने से प्रमाण से अभिन्न ही है परन्तु व्यवस्थाप्य (फल), व्यवस्थापक (प्रमाण) व प्रकाश्य-प्रकाशक की अपेक्षा दोनों में भेद भी है। प्रमाण और फल का यह भेदाभेद जैन स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुकूल ही है। 40 हानोपादानोपेक्षा वृद्धिरूप फल तो नैयायिकों ने भी स्वीकार किया है। सन्दर्भसूची 1. देखिए-संस्कृत-हिन्दी कोश, वा. शि. आप्टे, पृ0 669. 2. प्रमाकरणं प्रमाणम् .......यथार्थानुभव: प्रमा,......साधकतमं करणम्। (पा0 अ0 1.4.42) अतिशयितं साधकं साधकतमं प्रकृष्टं कारणमित्यर्थः / - तर्कभाषा प्रमाणनिरूपण, पृ0 13-19; प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत्। प्रमाणं प्रमायाः साधकतमम्। -प्रमाणमीमांसा, 1.1.1, पृ0 3 अतिशयेन साधकमति साधकतमं नियमेन कार्योत्पादकमित्यर्थः / / उद्धृत -न्यायदीपिका, पृ. 11, फुटनोट नं. 7. 3. अदुष्टं विद्या। - वैशेषिकसूत्र, 9. 2. 12. 4. उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानि।-न्यायभाष्य, 1.1.3. 5. उपलब्धिहेतुः प्रमाणम् ।-न्यायवार्तिक, 1.1.3. 6. प्रमाकरणं प्रमाणमवगम्यते।-न्यायमञ्जरी, पृ. 25. 7. उदयन-यथार्थानुभवो मानमनपेक्षतयेष्यते।-न्यायकुसुमाञ्जलि, 4.1. विश्वनाथ-बुद्धिस्तु द्विविधा मता। अनुभूतिः स्मृतिश्च स्यादनुभूतिश्चतुर्विधा प्रत्यक्षमप्यनुमितिस्तथोपमितिशब्दजे। -कारिकावली, 51-52. केशवमिश्र-देखिए-फुटनोट नं. 2. नोट-उदयन के पूर्व अनुभवघटित प्रमाणलक्षण उदयन के काल से परवर्ती न्यायदर्शन में अनुभवघटित प्रमाणलक्षण मिलता है। सम्भव है उन पर प्रभाकर मीमांसक का प्रभाव पड़ा हो। अनुभवघटित प्रमाणलक्षण करने से 'स्मृति' को प्रमाणकोटि से बाहर किया गया है 290
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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