________________ सभी विरोधों का समाधान : अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अध्यात्मशास्त्र आदि सभी क्षेत्रों में पाए जाने वाले विरोधों का समाधान सम्यक् अनेकान्तवाद या स्याद्वाद या सापेक्षवाद के द्वारा ही सम्भव है। क्योंकि ज्ञान अनन्त है और हमारे ज्ञान की मर्यादाएँ हैं। एकान्तवाद की दृष्टि से वस्तु के सम्पूर्ण अंशों को नहीं जाना जा सकता है। स्याद्वाद या अपेक्षावाद (दृष्टि विशेष) के द्वारा हम वस्तु के समग्र रूप को जान सकते हैं। भगवान् महावीर के दार्शनिक सिद्धान्तों के मूल में उनका अनेकान्तवाद का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के द्वारा उन्होंने परस्पर विरोधी दिखलाई देने वाले एकान्तवादी सिद्धान्तों का सम्यक् समन्वय स्थापित किया है। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में जब भगवान् महावीर का जन्म हुआ था। उस समय नित्यवाद, उच्छेदवाद आदि अनेक दार्शनिक मत-मतान्तर प्रचलित थे; उनमें सत्य क्या है? इसकी खोज भगवान् महावीर ने ध्यान के माध्यम से की थी। उन्होंने ध्यान के माध्यम से इस तथ्य का साक्षात्कार किया कि एकाङ्गी दृष्टि कभी भी वस्तु तत्त्व के समग्र रूप को प्रकाशित नहीं कर सकती है। प्रत्येक वस्तु में अनेक धर्म पाये जाते हैं जिनका हम युगपत् भाषा के माध्यम से कथन नहीं कर सकते हैं। सापेक्षिक कथन द्वारा ही हम वस्तु के समग्र रूप का विश्लेषण कर सकते हैं; क्योंकि भाषा निरपेक्ष रूप से वस्तु के समग्र रूप को अभिव्यक्त नहीं कर सकती है। भाषा के माध्यम से जो कुछ भी कहा जाता है वह किसी न किसी सन्दर्भ-विशेष में कहा जाता है। अतः उसे सन्दर्भ विशेष की दृष्टि से ही देखना चाहिए, समग्र दृष्टि से नहीं। यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि हम वस्तु को किस दृष्टि से देख रहे हैं?, कहाँ देख रहे हैं?, किस काल में देख रहे हैं?, कौन देख रहा है? आदि। इन सब प्रश्नों का समाधान अनेकान्तवाद में ही है, एकान्तवाद में नहीं। एकान्तवाद कब सम्यक् होता है और कब मिथ्या? अनेकान्तवाद कब सम्यक् है और कब मिथ्या? इन सब बातों का विचार जैन ग्रन्थों में विस्तार से किया गया हैं। इसीलिए इस अनेकान्तवाद के व्याख्यार्थ स्याद्वाद सिद्धान्त (निश्चित सापेक्षवाद का सिद्धान्त) और नय सिद्धान्त (सम्यक् एकान्तवाद का सिद्धान्त) लाया गया है। यदि इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया जायेगा तो जैनधर्म के प्राणभूत अहिंसा, अपरिग्रह आदि सिद्धान्तों की भी सही व्याख्या सम्भव नहीं होगी। इसके अतिरिक्त कोई भी दार्शनिक या वैज्ञानिक अपने सिद्धान्तों की सही व्याख्या तब तक नहीं कर सकता जब तक अनेकान्तवाद को स्वीकार न करें। समाज-व्यवस्था आदि भी इसे स्वीकार किए बिना सम्भव नहीं है। ज्योतिषीय गणनाएँ, भौतिकसिद्धान्त-निर्वचनों, चिकित्सा पद्धतियों आदि की व्याख्या भी बिना सापेक्षवाद के सम्भव नहीं है। अनेकान्तवाद शब्द को दो प्रकार से समझा जा सकता है 1. अन् + एकान्त = अनेकान्त अर्थात् एकान्तवाद नहीं; क्योंकि वस्तु अनेक धर्मवाली है। 2. अनेक + अन्त (धर्म या गुण) = अनेकान्त अर्थात् वस्तु अनेक धर्मवाली है। अनेकान्त का कथन स्याद्वाद एवं नयों के द्वारा अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन स्याद्वाद दृष्टि एवं नय दृष्टि से किया जाता हैं। 'स्याद्वाद' भाषा की वह निर्दोष पद्धति है जो वस्तु का सम्यक् प्रतिपादन करने में सक्षम है। इसमें प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द (निपात-सिद्ध, तिङन्त प्रतिरूप) प्रत्येक वाक्य के निश्चित सापेक्ष (मुख्य या गौण) होने की सूचना देता है, न कि संशय का बोधक है। इसमें विवक्षित धर्म का कथन करके अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता अपितु विवक्षित को मुख्य करके अन्य को गौण किया जाता है। अत: जब जो धर्म विवक्षित होता है तब उसे मुख्य और अन्य को गौण किया जाता है। इस तरह मुख्य-गौण भाव से कथन करने पर समग्र वस्तु का कथन हो जाता है। अर्थात् वस्तु केवल विवक्षित धर्म वाली ही नहीं है अपितु तदतिरिक्त भी अनेक धर्म उसमें विद्यमान है। यद्यपि स्याद्वाद एवं अनेकान्तवाद का प्रयोग पर्यायवाची के रूप में मिलता है, परन्तु स्याद्वाद निर्दिष्ट भाषा-शैली का प्रतीक है और अनेकान्तवाद ज्ञान का प्रतीक है। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में जो सम्बन्ध है; वह है-लक्ष्य-लक्षण भाव या प्रतिपाद्य-प्रतिपादक भाव या द्योत्य-द्योतक भाव का। स्याद्वाद तथा नयवाद की ही तरह निक्षेपवाद भी जैनदर्शन में प्रचलित है। इसके द्वारा भी वस्तु का विचार किया जाता है। निक्षेप के चार भेद हैं 211