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________________ नाम, स्थापना, द्रव्य और माव। इसी तरह नयों के अनेक भेद किये गए हैं। सप्तभङ्गी 'स्याद्वाद' का ही विस्तार है। एक वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों का सद्भाव अनेकान्तवाद के विरोध में कहा जाता है कि वस्तु जब अस्तिरूप है तो नास्तिरूप कैसे है? वस्तु जब एक है तो अनेक कैसे हो सकती है? भावरूप है तो अभावरूप कैसे हो सकती है? छोटी है तो बड़ी कैसे हो सकती है? हलकी है तो भारी कैसे हो सकती है? अर्थात् परस्पर विरोधी धर्म एक वस्तु में कैसे रह सकते हैं? वस्तुतः निश्चित सापेक्षभाव से परस्पर विरोधी धर्म एक साथ रह सकते हैं। उनमें न तो कोई विरोध है और न संशय। प्रत्यक्ष से वस्तु में जब हमें अनेक विरोधी धर्मों की स्पष्ट प्रतीति होती है तो उसमें संशय कैसा? घड़ा समग्र भाव से एक होकर भी अपने रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की अपेक्षा तथा छोटा, बड़ा, हलका, भारी आदि अनन्त गुणों और धर्मों की अपेक्षा अनेक रूपों में दिखलाई पड़ता है। घड़ा अपने स्वरूप की अपेक्षा अस्तिरूप है तो स्वभिन्न पररूपों (घोड़ा, कपड़ा आदि) की अपेक्षा नास्तिरूप भी है। यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो घड़ा, कपड़ा, घोड़ा आदि में कोई भेद नहीं हो सकेगा। यहाँ नास्तित्व धर्म ही घड़े को घड़े के रूप में प्रतिष्ठित करता है तथा घोड़ा आदि अन्यों से पृथक् करता है। वस्तु की भावाभावात्मकता इसी तरह घटादि वस्तु भावरूप भी है और अभावरूप भी। यदि वस्तु को सर्वथा (द्रव्य और पर्याय दोनों अपेक्षाओं से) भावरूप ही स्वीकार किया जायेगा तो प्राग्भाव (कार्योत्पत्ति के पूर्व असत् होना), प्रध्वंसाभाव (कार्योत्पत्ति के बाद घटरूप पर्याय का अभाव) एवं अत्यन्ताभाव (एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का त्रैकालिक अभाव) कुछ भी सम्भव नहीं होगा। वस्तु में दोनों रूप पाये जाते हैं- स्व-अस्तित्व और पर नास्तित्व। पर-नास्तित्वरूप को ही इतरेतराभाव (घट में पटादि का अभाव और पट में घटादि का अभाव) कहते हैं। इतरेतराभाव या अन्योन्याभाव स्वतंत्र पदार्थ नहीं है। दो पदार्थों के स्वरूप का प्रतिनियत होना ही एक का दूसरे में अभाव है जो तत्-तत् पदार्थों का स्व-स्वरूप ही होता है, मिथ्या नहीं। इसीलिए घोड़ा और ऊँट में सर्वथा अभेद नहीं माना जा सकता है। अन्यथा पूर्व जन्म के मृग और गौतम बुद्ध को एक मानकर मृग की भी पूजा प्राप्त होगी। अत: घोड़ा और ऊँट का सादृश्य एक जातीय होने से है, एक सत्ता का होने से नहीं। यदि वस्तु को सर्वथा अभावात्मक या सर्वथा शून्य माना जाएगा तो स्वपक्ष-साधन और परपक्ष-दृषण कैसे होगा; क्योंकि सर्वथा अभाव पक्ष में न तो वस्तु का बोध होगा और न वाक्य-प्रयोग। अत: वस्तु भावाभावात्मक, नित्यानित्यात्मक, सदसदात्मक, एकानेकात्मक तथा उत्पाद-व्यय ध्रौव्यात्मक है। किसी भी वस्तु का समूल विनाश नहीं होता; क्योंकि चेतन-अचेतन सभी सदा परिणामी नित्य हैं। अतीत पर्याय का व्यय, वर्तमान पर्याय का उत्पाद और दोनों अवस्थाओं में द्रव्यरूप से सदा रहना ध्रुवता है। वस्तु की ऐसी त्रयात्मकता को जैनाचार्यों ने तथा मीमांसकाचार्य कुमारिलभट्ट ने भी स्वीकार किया है। पातञ्जल-महाभाष्य तथा योगभाष्य में भी वस्तु की त्रयात्मकता को स्वीकार किया गया हैं। गुण-गुणी में, सामान्य-सामान्यवान् में, कारण-कार्य में, अवयव-अवयवी में सर्वथा भेद मानने पर गुणगुणीभावादि नहीं बन सकते; क्योंकि अमुक गुण का अमुक गुणी से नियत सम्बन्ध है, यह कैसे बतलाया जा सकता है? एक अवयवी अपने अवयवों में सर्वात्मना रहता है या एकदेश से? दोनों पक्षों में दूषण है; क्योंकि यदि पूर्ण रूप से रहता है तो जितने अवयव होंगे उतने ही अवयवी होंगे। यदि एकदेश से रहता है तो जितने अवयव के प्रदेश हैं उतने अवयवी मानने पड़ेंगे। सर्वथा अभेद पक्ष में गुण-गुणी व्यवहार ही सम्भव नहीं है। अतः वस्तु को भेदाभेदात्मक मानना चाहिए क्योंकि गुण और पर्याय को छोड़कर द्रव्य का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। अनेकान्त के सम्बन्ध में भ्रम निवारण राहुल सांकृत्यायन तथा डॉ0 हर्मन याँकोबी ने स्याद्वाद की सप्तभङ्गी (कथन के सात प्रकार) के चार भङ्गों (अस्ति, नास्ति, उभय, अनुभयरूप) की उत्पत्ति शब्दसाम्य के आधार पर सञ्जयवेलट्ठिपुत्त के उच्छेदवाद से मानी है, जो सर्वथा अनुचित है। सञ्जयवेलठ्ठिपुत्त जिन प्रश्नों का समाधान नहीं करते उन्हें अनिश्चय कहकर छोड़ देते हैं। गौतम बुद्ध भी उन्हें अव्याकृत कहकर छोड़ देते हैं। भगवान् महावीर ने अनेकान्त सिद्धान्त के माध्यम से ऐसे सभी प्रश्नों का सयुक्तिक एवं सम्यक् उत्तर दिया है। हिंसा और अहिंसा में जितना अन्तर है उतना ही महावीर के स्याद्वाद और सञ्जयवेलट्टिपुत्त के अनिश्चय सिद्धान्त (संशय तथा अज्ञान) में अन्तर है। डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने अपनी इण्डियन फिलासफी (जिल्द 1, पृ0 305 306) में स्याद्वाद को आपेक्षिक 212
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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