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________________ तरह पुरुष विशेष ईश्वर तो है परन्तु वह कभी बन्धन में नहीं था ऐसा जैनदर्शन को स्वीकार्य नहीं है। किञ्च, वह पुरुष विशेष जिसने कर्मबन्धनों को नष्ट करके अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान अनन्त शक्ति और अनन्त वीर्य को प्राप्त किया है, ईश्वर तो है परन्तु आप्तकाम और वीतरागी होने से सृष्टि के किसी भी कार्य में रुचि नहीं लेता है। इस दृष्टि से वह सांख्यों के मुक्तों की तरह साक्षी दृष्टा मात्र है। जैन ग्रन्थों में सांख्यदर्शन के ईश्वर का जो खण्डन मिलता है यह योगदर्शन की दृष्टि से है क्योंकि सांख्यदर्शन मूलत: अनीश्वरवादी है। जैन दर्शन में ईश्वरत्व अथवा महानता का द्योतन ऐश्वर्यों से नहीं किया गया है क्योंकि वह ऐश्वर्य अन्यों के भी सम्भव हैं। उनकी ईश्वरता को मापदण्ड कर्ममल से रहित आत्मा की शुद्धपरिणति है। जैसा कि आप्तमीमांसा में आचार्य समन्तभद्र ने कहा है - देवागमनभोयान-चामरादिविभूतयः। मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान्।।1।। दोषावरणयोर्हानिनिःशेषास्त्यतिशायनात्। क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः।।4।। सन्दर्भ सूची1. अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः / ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग नरकमेव वा।। उद्धृत, गौडपाद टीका 61 आप्तपरीक्षा टीका, पद्य 23; स्याद्वादमञ्जरी, पृ413.418 2. क्लेश-कर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः / योगसूत्र 1.24 3. वत्सविवृद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य। पुरुषविमोक्षनिमित्तं तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य / / सां. का. 57 4. तत्त्वार्थसूत्र 5.1-3, 39 तथा 5,17-22 उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् / तत्त्वार्थसूत्र 5.30 बालगङ्गाधर कृत कारिकाकारणमीश्वरमेके ब्रुवते कालं परे स्वभावं वा। प्रजा कथं निर्गुणतो व्यक्तः कालः स्वभावश्च / सांख्यकारिका में मूलत: उपलब्ध कारिका - प्रकृतेः सुकुमारतरं न किञ्चदस्तीति मे मतिर्भवति। या दृष्टाऽस्मीति पुनर्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य / / सां. का. 61 / / 7. तस्माद्युक्तकर्मतत्पुरुषविमोक्षार्था प्रकृतेः प्रवृत्तिर्न चैतन्यप्रसङ्ग इति // युक्ति 57 8. अत्र सांख्याचार्या आहुः- निर्गुण ईश्वर: सगुणानां लोकानां तस्मादुत्पत्तिरयुक्तेति / गौड0 61 9. सांख्यतत्त्वकौमुदी 57 10. यदीश्वरसिद्धौ प्रमाणमंस्ति, तदा तत्प्रत्यक्षचिन्ता उपपद्यते। तदेव तु नास्ति। अनि0 1/92 तथा 5/10-11. 11. अनि0 1/92 12. नारायणः कपिलमूर्तिः / सां0 प्र0 भा0 मंगलाचरण 2 13. दीयतां मोक्षदो हरिः / वही 6 14. न्यायकुमुदचन्द्र 111-114 15. श्वेताश्वतरोपनिषद् 1/9 16. महाभारत 12/306/36 17. मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् / गीता 9/10 ___ अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा। गीता 7/6 18. ब्रह्मपुराण 1/33; विष्णुपुराण 1/2/29, 19. तथा च वार्षगणाः पठन्ति प्रधान-प्रवृत्तिरप्रत्यया। पुरुषेणाऽपरिगृह्यमाणाऽऽदिसर्गे वर्तते / युक्ति 19 191
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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