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________________ इसके विपरीत आचार्य विज्ञानभिक्षु ने सांख्यप्रवचनभाष्य में सांख्यशास्त्र के प्रणेता कपिल मुनि को ईश्वर का अवतार तथा ईश्वर को मोक्षप्रदाता बतलाया है। इस तरह इन्होंने सांख्य की निरीश्वरवादी परम्परा में नया मोड़ दिया और कहा कि ईश्वर की सिद्धि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से न होने के कारण उसका अभाव नहीं माना जा सकता। इसीलिए सांख्य सूत्रों में ईश्वरासिद्धः (1/92) कहा है परन्तु 'ईश्वराभावात्' (सां.प्र.भा. 1/92) के रूप में विज्ञानभिक्षु का यह तर्क अनुचित सा है। किञ्च, सांख्यसूत्र परवर्ती रचना है। अभी तक उसके कपिल मुनि प्रणीत होने की सिद्धि नहीं हो सकी है। वस्तुतः विज्ञानभिक्षु का ईश्वर वेदान्त और योगदर्शन को मिला-जुला रूप है। पहले बतलाया जा चुका है कि सांख्यदर्शन का अनुगामी योगदर्शन क्लेशादि से अपरामृष्ट पुरुषविशेष को ईश्वर मानता है। योगदर्शन का यह ईश्वर सब प्रकार के बन्धनों से सर्वथा अछूता है। इसमें निरतिशय उत्कृष्ट सत्त्वशाली बुद्धि रहती है जिससे यह ऐश्वर्यसम्पन्न माना जाता है। ज्ञान और ऐश्वर्य का प्रकृष्टतम रूप जिसमें देखा जाता है वही नित्य ईश्वर है। प्रकृति पुरुष के विवेक ज्ञानपूर्वक मुक्त होने वाले जीवन्मुक्त और विदेहमुक्त ईश्वर नहीं हैं क्योंकि वे पूर्व में बन्धनयुक्त रहे हैं। किञ्च, यह ईश्वर अन्य पुरुषों (आत्मा) से विशिष्ट है। सामान्य पुरुष अकर्ता है, परन्तु ईश्वर अकर्ता नहीं है। इस तरह योगदर्शन सांख्यानुगामी होकर भी पुरुष विशेष के रूप में ईश्वर को स्वीकार करता है। वस्तुत: बुद्धि आदि प्रकृति के धर्म हैं ऐसी स्थिति में बुद्धयादि के रहने पर रहने वाले ऐश्वर्यादि गुणों का धारक पुरुषविशेष ईश्वर ऐश्वर्यसम्पन्न कैसे हो सकता है ? न्यायकुमुदचन्द्र 4 आदि जैन ग्रन्थों में योगानुसारी सांख्यदर्शन के इसी ईश्वरवाद का खण्डन किया गया है। वस्तुतः जैसा कि पहले कहा जा चुका है सांख्यदर्शन मूलत: जैनदर्शन की तरह अनीश्वरवादी है। डॉ. उर्मिला चतुर्वेदी ने 'सांख्यदर्शन और विज्ञानभिक्षु' नामक शोध प्रबन्ध में विज्ञानभिक्षु का पक्ष लेते हुए सांख्य को ईश्वरवादी सिद्ध किया है। सांख्यदर्शन के विकासक्रम को देखने से उसके तीन रूप दृष्टिगोचर होते हैं(1) उपनिषदों, महाभारत', गीता", और पुराणों में प्रतिपादित सांख्यदर्शन। (2) कपिलमुनि, वार्षगण्या, अनिरुद्ध, ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका का और उसके टीकाकारों का सांख्यदर्शन। (3) परवर्ती सांख्यदर्शन जिसका प्रतिनिधित्व विज्ञानभिक्षु करते हैं। जब हम कपिल के सांख्यदर्शन से जैनदर्शन की तुलना करते हैं तो देखते हैं। कि दोनों में बहुत साम्य है दोनों में कहीं भी सर्वशक्तिसम्पन्न अनादि ईश्वर की आवश्यकता अनुभव नहीं की गई है। परवर्ती काल में जिस प्रकार सांख्य में ईश्वरकर्तृत्व का समावेश हुआ है उस प्रकार जैनदर्शन में नहीं हुआ है। यद्यपि जैनदर्शन मे ईश्वरोपासना मिलती है परन्तु जैनदर्शन का ईश्वर कोई अनादिमुक्त पुरुष विशेष नहीं है अपितु सभी पुरुष (आत्मा) परमात्मा रूप हैं, उनमें से जो जीवन्मुक्त (अर्हत् या तीर्थङ्कर) और विदेहमुक्त (सिद्ध) हैं उन्हीं की ईश्वर रूप से उपासना की जाती है। जैनों के ये मुक्त-पुरुष या ईश्वर उपासक पर न तो कृपा करते हैं न निन्दक पर क्रोध / उपासना के द्वारा भक्त अपने आत्म-परिणामों की निर्मलता से यशादि को प्राप्त करता है। वस्तुतः जैनों के ये मुक्त तो सांख्य दर्शन की तरह साक्षी एवं तटस्थ हैं। वे शुद्ध चैतन्यरूप और साक्षी होने के साथ-साथ सर्वज्ञ, अनन्त शक्ति तथा अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द से भी सहित हैं जो सांख्यदर्शन के मुक्तपुरुष में नहीं है। ऐसे मुक्तात्माओं में ईश्वरत्व का आरोप निराधार नहीं है। यद्यपि निश्चय नय से ईश्वर कृपा नहीं है फिर भी व्यवहार से उनकी कृपा का उल्लेख मिलता है वस्तुतः फलप्राप्ति कर्मानुसार ही मानी जाती है। जैनदर्शन का कर्मसिद्धान्त इतना व्यवस्थित है कि उसके रहते सृष्टिकर्ता ईश्वर की आवश्यकता ही अनुभव में नहीं आती। इसके अतिरिक्त धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य के रहते ईश्वर को कोई कार्य नहीं बचता जिसके लिए सृष्टिकर्ता ईश्वर माना जाए। द्रव्य का स्वरूप उत्पाद्, व्यय और ध्रौव्यात्मक होने से भी किसी प्रेरक ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार सांख्यदर्शन में भी प्रकृति को स्वरूपतः सत्त्व (प्रकाशक), रजस् (क्रिया) और तमस् (आवरक) रूप मानने से ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है। कर्मों से सर्वथा अस्पृष्ट सर्वदृष्टा ईश्वर कथमपि सम्भव नहीं है। जैसाकि आप्तपरीक्षा में कहा है - नास्पृष्टः कर्मभिः शश्वद् विश्वदृश्वास्ति कश्चन। तस्यानुपायसिद्धस्य सर्वथाऽनुपत्तितः / / 8 / / इस तरह हम देखते हैं कि अर्हत्पद अथवा सिद्धपद (जीवन्मुक्त या विदेहमुक्त) को प्राप्त जीव ही जैनदर्शन में ईश्वर हैं। यद्यपि प्रत्येक जीव में यह ईश्वरत्व शक्ति है परन्तु अनादिकाल से कर्मबन्ध के कारण वह शक्ति ढकी हुई है। इस 190
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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