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________________ 20. पूर्वसिद्धमीश्वरासत्त्वम्। अनि0 5/2 यदीश्वरसिद्धौ प्रमाणमस्ति; तदा तत्प्रत्यक्षचिन्ता उपपद्यते / तदेव तु नास्ति ।अनि0 1/92 21. सांख्यकारिका 57 तथा उसकी टीकायें। 22. केवलणाण-दिवायर-किरणकलावप्पणासि अण्णाणो।। णवकेवललझुग्गम सुजणिय-परमप्पववएसो। गो0 जीव 63 असहायणाणदंसण सहिओ इदि केवली हु जोएण।। जुत्तो ति सजोगजिणो अणाइणिहणारिसे उत्तो / / गो0 जीव 64 23. अट्ठविहकम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा। अट्ठगुण किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा।। गो0 जीव 68 24. सिद्धिं मे दिसंतु / तीर्थङ्करभक्ति 8; तित्थयरा मे पसीयन्तु / / तीर्थ० भक्ति 6 25. सत्त्वं लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भकं चलञ्च रजः / / गुरु वरणकमेव तमः प्रदीपवच्चार्थऽतो वृत्तिः / / सां0 का0 13 // जैन श्रमण-संस्कृति की प्राचीनता एवं वैदिक संस्कृति [प्रस्तुत लेख में श्रमण और वैदिक संस्कृति की परस्पर तुलना करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि प्रारम्भ में दोनों संस्कृतियों का मूल एक ही रहा है किन्तु परवर्ती काल में आचार- विचार विषयक वैमत्य हो जाने से दोनों आमनेसामने खड़ी होकर परस्पर विरोधी संस्कृतियाँ हो गई। आज के बदले हुये नए परिवेश में दोनों संस्कृतियों में साम्यभाव आवश्यक है। जैन श्रमण संस्कृति प्राचीन है, यह वैदिक ग्रन्थों से भी सिद्ध है।] भारतवर्ष में प्राचीन काल से दो प्रमुख संस्कृतियाँ अविच्छिन्न रूप से उपलब्ध होती हैं(1) वैदिक संस्कृति और (2) श्रमण संस्कृति। वैदिक संस्कृति में प्रवर्तक धर्म की प्रधानता होने से देवोपासना और यज्ञादि कर्मकाण्ड की प्रमुखता है। "उद्भिदा यजेत पाशुकामः" (पशु की कामना वाला उद्भिद यज्ञ करे), 'अग्निहोत्रं जुहुयात्, स्वर्गकामः' (स्वर्ग की कामना वाला अग्निहोत्र यज्ञ करें) इत्यादि यज्ञीय विधि-विधानों के द्वारा इहलौकिक और पारलौकिक सुख-समृद्धि के लिए प्रयत्न देखा जाता है। सन्तान, स्त्री, धन, पशु, हिरण्य आदि भोग-सामग्रियों की प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य है। इन्द्र, वरुण, मरुत्, रुद्र आदि देवताओं को स्तुतियों और यज्ञों के द्वारा प्रसन्नकर उनसे भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने की अभिलाषा देखी जाती है। आत्मचिन्तन, त्याग, तपस्या, संसारमुक्ति आदि के लिए प्रयत्न परिलक्षित नहीं होता है। इसके विपरीत श्रमण संस्कृति में निवर्तक धर्म की प्रधानता होने से अंहिसा, सत्य, तपस्या, संन्यास, समाधि, चित्तशुद्धि, वीतरागता, समत्वभावना, आत्मसंलीनता, निष्कामकर्म-परायणता आदि की प्रमुखता है। सांसारिक सुख-लाभ के लिए इस संस्कृति में महत्त्व नहीं है। वैदिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व ब्राह्मणों में रहा है तथा श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधित्व जैन-बौद्ध धर्मानुयायियों में रहा है। इस तरह वैदिक संस्कृति वह है जिसमें वेद और वैदिक वाङ्मय को धार्मिक क्रियाओं के लिए प्रमाण माना जाता है। श्रमण संस्कृति में वेद और वैदिक वाङ्मय को धार्मिक दृष्टि से तो प्रमाण नहीं माना जाता परन्तु उनमें श्रमण संस्कृति के उल्लेखों को ऐतिहासिक दृष्टि से अवश्य प्रामाणिक माना जाता है। श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृति से प्राचीन है या अर्वाचीन है' यह तो विद्वानों में विवादास्पद है परन्तु इतना अवश्य सत्य है कि वैदिक संस्कति के समानान्तर ही श्रमण संस्कृति, जनजीवन में व्याप्त थी। दाशराज्ञ और सुदास का युद्ध इन दोनों संस्कृतियों का युद्ध था। दाशराज्ञ के नेता थे ऋषि विश्वामित्र और सुदास के नेता थे वशिष्ठ ऋषि / तपश्चरण द्वारा जाति-परिवर्तन करने वाले तथा ज्ञान और न्याय के मूर्तरूप विश्वामित्र श्रमण संस्कृति के प्रतिनिधि थे। यज्ञ-समाराधक वशिष्ठ वैदिक संस्कृति के प्रतिनिधि थे। सुदास की विजयप्राप्ति के बाद वैदिक धर्म का प्रचार यद्यपि अबाधरूप से हुआ, परन्तु श्रमण संस्कृति के प्रभाव से वैदिक ऋषि 192
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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