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________________ सिद्ध-सारस्वत आ गए। मेरे पूज्य पिताजी भी सपरिवार बांदकपुर आ गए। यहाँ एक मकान सड़क किनारे ले लिया। तब से मेरे पिताजी बांदकपुर वाले कहलाने लगे। आज भी मुझे बांदकपुर की धुंधली सी याद है। इसके पूर्व की कोई याद नहीं है। यहाँ मैं कागज की नाव बनाकर घर के बाहर बरसाती पानी में खेला करता था। उस समय उम्र करीब 3 वर्ष रही होगी। इसके बाद बैलगाड़ी द्वारा कुलुआ कुम्हारी में आ गए क्योंकि पिताजी का वहाँ ट्रांसफर हो गया था। वहाँ पिताजी के साथ उनके स्कूल जाते और खेलते रहते थे, कुछ सीखते थे। गाँव के बाजार में संतरे की मीठी टाफियाँ खरीदकर खाया करते थे। कुलुआ कुम्हारी का घर, स्कूल और बाजार आज भी आंखों में तैरते हैं। यहीं से आगे की स्मृति स्पष्ट होती गई। यहाँ से पिताजी का ट्रांसफर बनगाँव (हटा-दमोह के रास्ते में ) हो गया। यहाँ के घर का तथा स्कूल का नक्शा आज भी आंखों में स्पष्ट सा झूलता है। यहीं पर मैंने स्कूल जाना प्रारम्भ किया परन्तु रेगुलर नहीं। पिताजी के साथ स्कूल जाते थे और पहली कक्षा में बैठते थे। कुछ समय बाद पिताजी का ट्रांसफर एक ऐसे-गाँव में कर दिया गया। जहाँ जैन मन्दिर नहीं होने से पिताजी ने वहाँ जाने से मना कर दिया। वे प्रायमरी के हेडमास्टर थे। पिताजी की चर्चा प्राय: समाज के तीन हेडमास्टरों के साथ होती थी- पं. हजारी लाल जैन (बंड़ा बेलई), मास्टर थम्बनलाल जैन तथा मास्टर सिद्धेलाल जैन। उस समय दमोह में जैन समाज के प्रतिष्ठित सेठ थे श्री गुलाबचंद जैन उनका प्रशासन पर भी प्रभुत्व था। उनके प्रयास से पिताजी का ट्रांसफर बनगाँव से दमोह के धर्मपुरा स्कूल में हो गया। इस तरह पिताजी दमोह नगर पालिका के अन्दर आ गए परन्तु इसके लिए उन्हें हेडमास्टर का पद त्यागना पड़ा। हम लोग सपरिवार दमोह आ गए और एक किराए के मकान में (पुराने थाने के पीछे मल्लपुरा) रहने लगे। पास में ही दो-तीन जैन मन्दिर थे तथा सेठजी का घर भी पास में था, सटी हुई एक छोटी पहाड़ी थी, जहाँ हिन्दुओं का मन्दिर था। आज वैसा ही है। घर से स्कूल करीब 2-3 कि.मी. दूर था। पिता जी साईकिल से स्कूल जाते थे। साथ में मुझे भी आगे बैठाकर स्कूल ले जाते थे, वहाँ मेरा विधिवत् कक्षा एक में नाम लिखवा दिया। कक्षा दो के बाद मैं पैदल स्कूल जाने लगा। घर पर कोई न होने से मैं प्राय: सेठ जी के सुपुत्र श्री सुमत सेठ के साथ खेलने चला जाता था। सभी समकक्ष थे। इस तरह मेरा सेठ जी के परिवार के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध भी हो गया। प्रायः वहीं भोजन भी कर लिया करता था क्योंकि पिताजी के साथ केवल मैं रहता था परिवार का कोई अन्य सदस्य नहीं रहता था। पिता जी के ट्रांसफर अब दमोह के ही स्कूलों में होने लगे जिससे स्थायी रूप से दमोह निवासी बन गए। पिताजी की कर्मठता, विद्वत्ता, अनुशासनप्रियता, नियमितता और प्रशासन कुशलता देखकर उन्हें पुनः प्रधानाध्यापक बना दिया। इसके बाद वे ई. 1962 में सेवानिवृत्त हो गए। दमोह के पूर्व पिताजी सागर जिले एवं दमोह (पूर्व में दमोह सागर जिले में ही था) जिले के गाँवों में पढ़ाया करते थे, उनमें से कुछ स्थनों के नाम मुझे याद हैं- नोहटा, हटा, लखनादौन, बांदकपुर, कुलुआ कुम्हारी, लखरौनी वनगाँव आदि। पिताजी ने सेवानिवृत्ति के दो वर्ष पूर्व (ई. 1960) में एक पुराना मकान सिविलवार्ड (तीनगुल्ली) में सागर रोड़ पर खरीद लिया। उस समय मैं बी.एच.यू. में बी.ए. की पढ़ाई कर रहा था। पिताजी अध्यापन काल में छात्रों को ट्यूशन के माध्यम से भी पढ़ाया करते थे। जो बच्चे पढ़ते नहीं थे उन्हें रास्ते पर लाने में वे माहिर थे। अत: बहुत लोग उनके पास अपने बच्चे ट्यूशन हेतु भेजते थे। समाज में सम्मान था यह कार्य उनका सेवानिवृत्ति के बाद भी चालू रहा। पिताजी ने इसके साथ दो कार्य और शुरू किए जिससे आर्थिक परेशानी न हो(1) घर पर बैठे-बैठे रविवार को बाजार के दिन किसानों द्वारा लाई गई पोटलियों का गल्ला (गेहूं, चना, आदि) खरीद लेते और उसे अल्प मार्जिन पर बेच देते थे। कभी-कभी घाटा भी हो जाता था। (2) गरीबों तथा जरूरतमन्द लोगों की मदद हेतु छोटी-मोटी साहूकारी भी करने लगे। कोई बर्तन रख जाता, कोई गहना रख जाता। मैंने इस कार्य हेतु मना किया तो कहते थे, बेटे! इतने कम ब्याज पर इन्हें कोई पैसा नहीं देगा, कभीकभी ब्याज नहीं भी लेता हूँ। कभी-कभी नकली जेवर भी रख जाते थे। उन्हें अपनी गरीबी याद थी इसीलिए परोपकार की भावना से सहयोग करते थे और अपनी आजीविका चलाते थे। मेरी अध्ययन-अध्यापन यात्रा अध्ययन - धर्मपुरा स्कूल से कक्षा चार (पहले प्रायमरी कक्षा चार तक होती थी) प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद पिता जी मुझे अपनी तरह मास्टर बनाने के उद्देश्य से समीपस्थ स्कूल में प्रवेश दिलाने ले गये। परन्तु वहाँ प्रात:कालीन शिफ्ट में प्रवेश पिताजी को मञ्जूर नहीं था क्योंकि उनका स्कूल दोपहर की शिफ्ट में था। इसके अतिरिक्त नार्मल ट्रेनिंग स्कूल 127
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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