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________________ सिद्ध-सारस्वत में प्रवेश के लिए मेरी उम्र कम थी। पहले सातवीं के बाद नार्मल ट्रेनिंग होती थी। व्यवस्था बनती न देख पिताजी ने कटनी के श्री शान्तिनिकेतन जैन संस्कृत विद्यालय में भेजने का विचार किया। संयोग से पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री (प्राचार्य कटनी विद्यालय) दमोह आए और पिताजी के अनुरोध पर ई. 1953 में कटनी के जैन विद्यालय में ले जाकर बोर्डिग में भर्ती कर दिया। यहाँ रहकर मैंने ई. 1956 में प्रथमा तथा 1958 में पूर्व मध्यमा (कक्षा 10) पास की। इसके बाद जुलाई 1958 में मोराजी सागर पढ़ने आ गया। यहाँ पर मैं मात्र एक वर्ष रहा, उत्तर मध्यमा प्रथम खण्ड के साथ धार्मिक परीक्षायें उत्तीर्ण की। यहीं से प्राईवेट जैनन्याय मध्यमा और न्यायतीर्थ परीक्षा भी उत्तीर्ण की। उस समय यहीं पर पं. दयाचन्द जी (बड़े पं. जी प्रचार्य), पं. पन्नालाल जी, पं. माणिक चन्द जी तथा छोटे पं. दयाचन्द जी अध्यापन करते थे। पं. माणिकचन्द्र का मुझ पर कुछ अधिक स्नेह था परन्तु वे कड़े अनुशासन प्रिय थे। यहाँ से मैं अकेला ही जुलाई 1959 में श्री स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी आ गया। यहाँ पं. कैलाशचन्द जी प्रचार्य तथा धर्माध्यापक थे। यहाँ रहकर साहित्य विषय से उत्तर मध्यमा तथा इंटर परीक्षा उत्तीर्ण की, इसके उपरान्त मुझे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बी.ए. द्वितीय वर्ष (आनर्स) में प्रवेश मिल गया। उसी वर्ष से बी.ए. में तीन वर्षीय पाठयक्रम प्रारम्भ हुआ था और जो इंटर (बारहवीं) पास करके आते थे उन्हें सीधे बी.ए. द्वितीय वर्ष में प्रवेश मिल जाता था तथा हायर सेकेण्डरी (ग्यारहवीं) वाले को बी.ए. प्रथम वर्ष में। बाद में इण्टर वालों को भी बी.ए. प्रथम वर्ष में प्रवेश मिलने लगा। बी.ए. का नया कोर्स अधिक था- तीन अनिवार्य विषय अंग्रेजी, हिन्दी एवं जनरल एजूकेशन थे तथा तीन ऐच्छिक। वैकल्पिक विषयों में उच्च श्रेणी के अंक लाने पर बी.ए. आनर्स की डिग्री मिलती थी। मैंने दर्शन, पालि और संस्कृत को वैकल्पिक विषय के रूप में चुना था। बी.ए. द्वितीय वर्ष में मैं मेरिट लिस्ट में चतुर्थ स्थान पर था तथा तृतीय वर्ष में (फाइनल में) द्वितीय स्थान पर था। इससे मैं कॉलेज में प्रसिद्ध हो गया और सब अध्यापकों का चहेता बन गया। इस तरह ई. 1962 में मैंने बी.ए. आनर्स परीक्षा उत्तीर्ण की। जब बी.ए. का रिजल्ट न्यूज पेपर में आया तब मैं पिताजी के घर पर बर्तन साफ कर रहा था। बड़ी प्रसन्नता हुई, सभी ने बधाई दी। परन्तु कोई जश्न नहीं, पार्टी नहीं हुई। आगे अध्ययन करने की बलवती इच्छा हो जाने से मैं पुनः वाराणसी आ गया परन्तु एम.ए. में प्रवेश लेने की तिथि एक्सपायर हो गई थी। जिससे मैं बड़ा उदास हो गया। मैंने दर्शन शास्त्र और संस्कृत विषय में प्रवेश पाने हेतु दो प्रार्थना पत्र लिखे जिन्हें क्रमश: दर्शनशास्त्र और संस्कृत के विभागाध्यक्षों से संस्तुत कराया गया था। गुणग्राही कुलपति ने दोनों विषयों में इच्छानुसार प्रवेश की अनुमति दे दी। अब दूसरी समस्या यह थी कि मेरी उम्र प्रवेशार्हता से एक वर्ष कम थी परन्तु वहीं एक अन्य नियमानुसार वहीं से उत्तीर्ण छात्रों पर वह नियम लागू नहीं होता था जिससे मुझे प्रवेश की अनुमति मिल गई। मैंने संस्कृत से एम.ए. करने की इच्छा से वहाँ सन 1962 में प्रवेश ले लिया। मेरे मित्र श्री पृथ्वी कुमार अग्रवाल, जो प्रसिद्ध प्रो. वासुदेव शरण अग्रवाल के सुपुत्र थे तथा जिन्होंने बी.ए. में प्रथम स्थान प्राप्त किया था, उन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति विभाग में प्रवेश लिया। एम.ए. प्रथम वर्ष संस्कृत में मुझे प्रथम स्थान मिला परन्तु अंतिम वर्ष में पुनः द्वितीय स्थान प्राप्त किया। मैंने द्वितीय वर्ष में दर्शन ग्रूप लिया और ई. 1964 में एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण करके शोध हेतु पी-एच.डी. में रजिस्ट्रेशन कराया। ई. 1967 में पी-एच.डी. की उपाधि मिल गई। अध्यापन - पी-एच.डी. की उपाधि मिलने के पूर्व ही मेरी वर्धमान कालेज बिजनौर में लेक्चरर पद पर नियुक्ति हो गई, यू.जी.सी. से छात्रवृत्ति भी अग्रिम शोध हेतु स्वीकृत हो गई। अपने शोध निदेशक तथा संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रोफेसर सिद्धेश्वर महाचार्य की अनुमति से मैंने वर्धमान कालेज, बिजनौर में दिनांक 5.9.1967 को संस्कृत विभाग में ज्वाइन कर लिया। इसके बाद मेरठ कालेज से तथा मध्यप्रदेश प्रशासन से मुझे वहाँ के शासकीय कॉलेज में ज्वाइन करने हेतु नियुक्ति पत्र मिले। अन्य स्थानों से भी नियुक्ति हेतु ऑफर आए परन्तु मेरे सौभाग्य से उसी समय बी.एच.यू. वाराणसी से भी नियुक्ति पत्र आ गया और मैंने वहाँ विश्वप्रसिद्ध काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, कला सङ्काय के संस्कृत-पालि विभाग में दिनांक 12 अगस्त 1968 को ज्वाइन कर लिया। मेरे मित्र पृथ्वी कुमार अग्रवाल ने भी मेरे साथ अपने-अपने विषय में एक साथ पी-एच.डी. की उपाधि और लेक्चररशिप ज्वाइन की। मेरे परमादरणीय गुरु प्रो. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य की मेरे ऊपर बड़ी अनुकम्पा रही जिसके फलस्वरूप बिजनौर से 11 माह बाद पुन: बी.एच.यू. में आ गया। धीरे-धीरे मैं दो बार (1992-95 एवं 2003 से 2006) संस्कृत विभागध्यक्ष बना। रीडर (7.2.1984) और प्रोफेसर के (7.2.1992) के पदों पर क्रमशः आसीन होते हुए ई. 1.2.2004 में कला सङ्काय का डीन (सङ्काय प्रमुख) बना। डीन पद तथा संस्कृत विभागाध्यक्ष दोनों पदों से एक साथ सेवानिवृत्त (31 मार्च 128
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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