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________________ सिद्ध-सारस्वत मैं कौन हूँ? ( स्व जीवन वृत्त) जब मैं निश्चयदृष्टि या परमार्थदृष्टि से विचार करता हूँ तो मैं चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ जो ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों तथा रागद्वेष रूप भावकों से सर्वथा भिन्न है। सूक्ष्म शरीर, (तेजस् और कार्मण शरीर) तथा स्थूल शरीर (औदारिकादि) से भी सर्वथा भिन्न है। अव्याबाध-अतीन्द्रिय ज्ञान, आत्मोत्थ अनन्त दर्शन, वीर्य और सुख से अभिन्न है। अनादि अनन्त तथा अजर-अमर (जरा-जन्म-मरण) आदि से रहित है। परन्तु व्यवहार दृष्टि से संसारी जीव कर्म-नोकर्म से सहित है, सूक्ष्म और स्थूल शरीर से युक्त है। इन्द्रियजन्य आंशिक ज्ञानादिरूप चैतन्य वाला है। जरा-जन्म-मरण सापेक्ष (शरीरसापेक्ष) है। इस तरह व्यवहार से अनेक प्रकार का है। संसारी जीवों में मैं मनुष्य गति वाला संज्ञी (मन सहित) पंचेन्द्रिय जीव हूँ। मेरे सभी दश प्राण तथा छहों पर्याप्तियाँ हैं। सूक्ष्म शरीर के साथ स्थूल औदारिक शरीर है। उच्च जैन बड़कुल गोत्र है। नाम निक्षेप से मुझे सुदर्शन लाल जैन नाम से जानते हैं। नाम निक्षेप से मेरे माता-पिता हैं- स्व. श्रीमती सरस्वती देवी जैन तथा स्व. मास्टर श्री सिद्धेलाल जैन। पूर्वज जहाँ तक मुझे ज्ञात हुआ है कि मेरे पूर्वज "शाहगढ़" मध्यप्रदेश के रहने वाले थे। यह शाहगढ़ पहाड़ी पर एक छोटा सा गाँव है, इसे घटिया खाले वाला शाहगढ़ भी कहते हैं। यहाँ श्यामली नदी बहती है। यह बिजावर से 8 किलोमीटर दूर है। पास में ही हिन्दुओं का तीर्थस्थान जटाशंकर है जो छतरपुर जिले के अन्तर्गत आता है। यहाँ से एक रास्ता विजावर होते हुए छतरपुर जाता है। दूसरा रास्ता हटा होते हुए कुण्डलपुर (जैन तीर्थ क्षेत्र) बांदकपुर (हिन्दुओं का तीर्थक्षेत्र) तथा दमोह की ओर जाता है। इस तरह यह क्षेत्र तीर्थक्षेत्रों से घिरा हुआ है। शाहगढ़ स्वयं भी एक जैन अतिशय क्षेत्र है। (गाँव वालों से) सुनने में आया है कि आज से 100-120 वर्ष पूर्व दशलक्षण पर्व (दिगम्बर जैन महापर्व/पर्युषण पर्व)) के समय प्रतिमा-मञ्जन करने वाले पुजारी ने अपने पाप को छुपाया था जिससे भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति से इतना जलस्राव हुआ कि उस जल को सुखाने में एक थान कपड़ा लग गया। जब उसने अपने पाप के लिए क्षमा मांगी तभी वह जलस्राव बन्द हुआ। यहाँ का मुख्य धन्धा या आजीविका वनोपज थी। वनोपज में चिरौंजी और महुआ प्रमुख थे। गाय-भैंस आदि दुधारू पशुओं का पालन पोषण करते थे जिससे घी आदि भी उनकी आय का मुख्य स्रोत था। यहाँ की आबादी जैनअजैन को मिलाकर करीब 300 घर ही थे। जैनों के 60-70 घर थे जो आज 4-5 घर ही बचे हैं, जो यहाँ के जैन मन्दिरों की देखभाल करते हैं। पहले यहाँ के लोग सम्पन्न थे और यहाँ तीन मन्दिर थे। एक मन्दिर 300 वर्ष पुराना था जो सड़क के पास में था। उसके जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर वि.सं. 1914 में मन्दिर की नई नींव रखी गई। आज तीनों मन्दिरों की मूर्तियाँ वहाँ से हटाकर गाँव के मध्य एक ही मन्दिर में तीन वेदियाँ बना कर रख दी गई हैं। जिनमें एक वेदी बड़कुलों की है, एक वेदी सिंघई की तथा एक पंचायती है। मूर्तियाँ बहुत हैं जिन्हें इन तीनों में समाहित कर दिया गया है। मन्दिर के नाम से बहुत जमीन है जिसका उपयोग नहीं हो रहा है। इसे तीर्थक्षेत्र के रूप में विकसित करके भव्य विशाल मन्दिर व धर्मशाला आदि बनाई जा सकती है। बड़कुल खानदान के श्री आनन्द कुमार जैन एवं विनोद कुमार जैन यहाँ रहकर मन्दिर की देखभाल करते हैं। बड़कुल उपाधि- हमारे पूर्वजों ने यहाँ पर दो मन्दिर बनवाए थे और उन्हें 'बड़कुल' की उपाधि से सम्मानित किया गया था। श्री आनन्द कुमार जी बड़कुल हमारे खानदान से ही सम्बन्ध रखते हैं। डॉ. श्री नन्दलाल जैन (रीवाँ निवासी) भी हमारे ही खानदान के हैं। मैं डॉ. धर्मचन्द के साथ दो बार यहाँ आया हूँ परन्तु इस इतिहास में रुचि न लेने से आज सब विस्मृत हो गया है। जब पहली बार यहाँ आया था तब लोग सब इतिहास जानते थे। मैंने यहाँ जब अपने पिताजी का नाम लेकर परिचय दिया तो उन्होंने मुझे पहचान कर भोजन कराया और घटनायें सुनाईं। दूसरी बार मैं अपनी पत्नी डॉ. मनोरमा को भी साथ ले गया। मैंने वहाँ रू. 5000 दान दिया जिससे पूजा में विघ्न न आवे तथा कोई मुनि इसका विकास करें तो मेरा पूरा सहयोग रहेगा, ऐसा वचन देकर आ गया। आज भी मैं हृदय से इस स्थान के विकास की कामना करता हूँ। शाहगढ़ से बांदकपुर, बनगाँव होते हुए दमोह आगमन एक बार शाहगढ़ में फसल खराब हो जाने के कारण आर्थिक तंगी आ गई जिससे वहाँ के कुछ जैन बांदकपुर 126
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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