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________________ सिद्ध-सारस्वत विद्वान् भी मुग्ध हो जाते हैं श्री सुदर्शन लाल जैन को मैं अध्ययन काल से जानता हूँ। ये न्याय, वेदान्त, सांख्य, जैन, बौद्ध, योग आदि दर्शनों के मार्मिक विद्वान् हैं। भारतीय दर्शनों के दुरुह अभिप्रायों को ये इतनी सरल पद्धति से प्रकट कर देते हैं कि सुनकर विद्वान् भी मुग्ध हो जाते हैं। ये सुशील, विनयी, कर्मनिष्ठ एवं प्रदत्त उत्तरदायित्व को भलीभाँति निभाते हैं। इन्होंने मुझसे नव्यन्याय और वेदान्त शास्त्र पढ़ा है। मैं इनकी प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति चाहता हूँ। ___पं. मूलशंकर शास्त्री प्राध्यापक, संस्कृत महाविद्यालय, बी.एच.यू. सरल और विद्याव्यसनी स्वभाव श्री सुदर्शन लाल जैन मेरे पास मीमांसा दर्शन का अध्ययन करने आया करते थे उनका मीमांसा दर्शन में 'निषेध मीमांसा विषयक लेख प्रामाणिक और सुन्दर ढंग से लिखा गया है। लेख से प्रतीत होता है कि जैन महोदय मीमांसादर्शन का अध्ययन ठीक ढंग से किए हैं। उनके सरल और विद्याव्यसनी स्वभाव से मैं बहुत प्रभावित हूँ। महामहोपाध्याय पी.एन. पट्टाभिराम शास्त्री पद्मभूषण, वेदमीमांसा अनुसन्धान केन्द्र, सं.सं.वि.वि. वाराणसी न केवलं नाम्ना सुदर्शनः अयं न नाम्ना केवलं सुदर्शनः किन्तु अर्थतोऽपि सुदर्शन: साहित्यसौहित्यमासादयन चातुर्य-माधुर्यधुराधिरूढः प्रतिभात स्वीयशास्त्रभिः शोभते। अध्यापनकर्मणि कौशलं कलयन मां प्रणयतीति सहर्षवर्षं समुदाहरामि।। पं. महादेव शास्त्री साहित्यविभागाध्यक्ष, संस्कृतमहाविद्यालय, बी.एच.यू. वाराणसी विवाहोपरान्त पति के साथ जीवन-यात्रा मेरे पति के मित्र सेठ सुमत जैन और उसकी बहिन कमला जैन के साथ घनिष्ठ मैत्री सम्बन्ध थे। उनकी माताश्री की इच्छा थी कि कमला का वैवाहिक संबन्ध सुदर्शन लाल से कर दिया जाए। परन्तु आर्थिक परिस्थितिओं में बहुत अन्तर था। मेरी भी कमला के साथ घनिष्ठ मित्रता थी, एक साथ एक ही विद्यालय में पढ़ते थे। यह एक प्रबल पूर्वजन्म का संयोग था कि मेरा वैवाहिक सम्बन्ध डॉ. सुदर्शनलाल के साथ तय हो गया। कमला ने मुझे चिढ़ाते हुए कहा यह तो ऐतिहासिक सेठ सुदर्शन-मनोरमा की जोड़ी होगी। जो सच हुई। विवाह में किसी तरह के दहेज आदि की बात नहीं हुई क्योंकि पिता जी (ससुर जी) को मेरा कार्य पसन्द था, वे मेरी धार्मिकता तथा कर्तव्यकर्मों की कर्मठता से प्रभावित थे। मेरे पति भी दहेज विरोधी थे। दिनाङ्क 13.05.1965 को मेरा इनके साथ विवाह हो गया और मैं ससुराल आ गई। यहाँ आने पर मुझे पुत्रीवत् प्रेम मिला। मैंने भी पूरे परिवार को अपना लिया। कुछ समय बाद मेरे पति मुझे वाराणसी लिवा ले गए, जहाँ वो रिसर्च कर रहे थे। एक छोटा सा कमरा था 200 रूपया उन्हें छात्रवृत्ति मिलती थी। उसी में खर्च चलाना पड़ता था क्योंकि मेरे पति बड़े स्वाभिमानी हैं। अत: किसी से आर्थिक सहयोग हेतु नहीं कहते हैं। कंट्रोल से प्राप्त अमेरिकन लाल गेंहू खाकर भी हम लोग प्रसन्न थे। शहर से बाहर जाकर श्वेताम्बर जैन आश्रम में रहते थे। अतः मेरे परिवार के लोग कहते थे मेरी बेटी तो राम के साथ वनवास में हैं। 113
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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