________________ सिद्ध-सारस्वत पतिदेव शोधकार्य में लगे रहते थे। दिनांक 28.9.1967 को मैंने ससुराल (दमोह) में प्रथम पुत्ररत्न को जन्म दिया। सर्वत्र खुशियों की लहर दौड़ पड़ी। ये पास में नहीं थे। इन्होंने विजनौर के वर्धमान कालेज में संस्कृत प्रवक्ता के रूप में दिनांक 05-09-1967 से सर्विस शुरु कर दी थी। दुर्भाग्य से इन्होंने वहाँ हाइड्रोसिल का आपरेशन कराया जो बिगड़ गया और मुझे पिता जी के साथ बिजनौर आना पड़ा। पुत्र संदीप अभी तीन माह का ही था। दुर्भाग्य से एक दिन बन्दर ने पुत्र को घेर लिया जिसे पड़ौसी की मदद से छुड़ाया। पतिदेव के साथ मेरठ होते हुए दिल्ली डॉक्टर को दिखाने गये वहाँ सौभाग्य से पतिदेव के घाव से धागा निकला और वे ठीक हो गये। थोड़े समय बाद ही इनकी नियुक्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी के संस्कृत विभाग में हो गई। वहाँ से हम वाराणसी आ गए और दिनांक 12-08-1968 को इन्होंने ड्यूटी ज्वाइन कर ली। इसमें तत्कालीन विभागाध्यक्ष गुरु प्रो. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य तथा कोमलचन्द जैन का बड़ा सहयोग रहा। उसी समय मध्यप्रदेश शासन तथा मेरठ से भी नियुक्ति पत्र आ गए जिन्हें नजर-अन्दाज कर दिया। दिनांक 28-09-1968 को हमारे बड़े पुत्र का प्रथम जन्मदिन मनाया गया। परिवार के कई लोग वाराणसी आए थे और सबके साथ शिखरजी की यात्रा पर चले गए। वहाँ पानी गिर रहा था। बेटा न तो डोली वाले की डोली में बैठ रहा था और न किसी के पास जा रहा था जिससे पूरे पहाड़ की यात्रा इन्होंने अपने कंधे पर बैठाकर की। कालान्तर में 08.09.1969 को द्वितीय पुत्र संजय हुआ। दोनों जब गली में निकलते थे तो मोहल्ले वाले 'रामलक्ष्मण' की जोड़ी कहकर पुकारते और गोदी में उठाकर खिलाते थे। इसके बाद सुन्दर गुणी एक कन्या मनीषा हुई। जिसकी हमें बड़ी चाहना थी। दिनांक 19.04.1975 को हमारे पाप कर्मोदय से बड़े पुत्र संदीप को सर्वांग में पोलियो हो गया। बहुत परिश्रम के बाद वह वैशाखी पर चलने लगा। आगे उसने बी.एच.यू. से कम्प्यूटर इंजिनियरिङ्ग में ग्रेजुएशन करके पूना में सर्विस की। शीघ्र ही अमेरिका में पी-एच.डी. हेतु स्कालरशिप के साथ प्रवेश मिल गया। वहाँ उसने पीएच.डी. करके सर्विस ज्वाइन कर ली। आज वहाँ अच्छी पोस्ट पर है, दो बच्चियाँ हैं। एक ग्रेजुएशन कर चुकी है। मनीषा के बाद मेरा एक पुत्र अभिषेक हुआ जो एम.बी.ए. करके मुंबई में ऊँची पोस्ट पर कार्यरत है। इसी समय इनका कुलपति के लिए नामांकन हुआ परन्तु चिकुनगुनिया हम दोनों को हो जाने के कारण राज्यपाल से मिलने नहीं जा सके। ई. 2012 में इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला। इसके बाद बेटी के विशेष आग्रह पर जून 2014 को भोपाल आ गए और यहीं रहने लगे। अपरिचित स्थान था धीरे-धीरे परिचय हुआ और सबने पं. जी कहकर सम्मान दिया। आचार्य विशुद्धसागर जी का चौमासा था उन्होंने समाज में मेरे पति की विद्वत्ता की प्रशंसा की। नंदीश्वर मन्दिर के अध्यक्ष श्री प्रमोद चौधरी जी, एम.सी. जैन, पी.सी. जैन, अजय जोशी जी आदि से बड़ा सम्मान मिला। इसी बीच मेरा विशेष परिचय प्रतिष्ठाप्रज्ञ पं. विमल सोरया जी से हुआ। उन्होंने निश्छल भाई-बहिन का प्रेम दिया। और वे हम लोगों से भी प्रभावित हुए। उन्होंने इनके अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने का साग्रह प्रस्ताव रखा जिसे स्वीकार करके अपेक्षित सामग्री एकत्रित करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने (सोरया जी ने) वीतराग वाणी में इसकी घोषणा कर दी तथा वरिष्ठ सम्पादक बना दिया। मेरे पति हमेशा पढ़ने की प्रेरणा देते तथा पढ़ने वालों का सहयोग करते हैं। उन्हीं की प्रेरणा से मैंने जैनदर्शनाचार्य किया तथा पी-एच.डी. की। मैं अपने आप को बड़ी सौभाग्यशाली मानती हूँ कि ऐसे पति मिले तथा जैनत्व के संस्कार मिले। वाराणसी के बाद जैन नगर भोपाल में सभी से हमें आत्मीयता मिली। मेरे पति का यह अभिनन्दन ग्रन्थ वस्तुतः जैनधर्म, संस्कृति, विद्वत्ता और समाज का है। हमें इसी तरह का प्यार मिलता रहे और हम सपरिवार सतत धर्माराधना में संलग्न रहें, यही प्रभु से कामना है। डॉ. मनोरमा जैन, जैनदर्शनाचार्य एफ 3/103 ग्लोबस ग्रीन एकर्स, लालघाटी, भोपाल (म.प्र.) 114