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________________ सिद्ध-सारस्वत मनीषी विद्वानों की श्रृंखला के स्तम्भ पुरुष दमोह नगर में बड़े पले मास्टर सिद्धेलाल के गृहाङ्गण में बचपन की अठखेलियाँ खेलने वाले बालक सुदर्शन को कोई नहीं जानता था कि यह बालक एक दिन जैन जगत का सिद्धहस्त मनीषी विद्वान् के रूप में अपनी अमिट छाप बिखेरेगा। गर्व-दंभ से परे सरस्वती के वरद पुत्र सारस्वत मनीषी की विद्वत्ता की सुरभि देश क्या विदेश में भी विखेर रही है। आपका जब भी दमोह आगमन होता था तब मेरे घर पर मेरे पिता जी (पं. अमृतलाल जी प्रतिष्ठाचार्य के घर) के साथ घंटों धर्म चर्चारत रहते थे। उनसे बात करने पर ऐसे प्रतीत होता जैसे वे मेरे परिजन (चाचा) हैं। उनकी चर्चा का मुख्य विषय बहुधा स्याद्वाद् विद्यालय के विकास का होता था। वे जैन संस्थाओं की व्यवस्थाओं के परिवर्तन परिवर्धन की भी चर्चा करते थे। शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े, शिक्षण के प्रति पूर्ण-निष्ठावान् रहते हुये आपने अपनी सेवायें दी हैं जिसके प्रतिफल स्वरूप आपको राष्ट्रपति पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। समाज के चारित्रिक उत्थान के प्रति चिंतनशील तथा समाज को सही दिशा निर्देशन करना आपकी जीवन शैली का अंग बना। आपकी देव, शास्त्र, गुरु प्रामाणिक व पठनीय है। यह देव शास्त्र गुरु के स्वरूप का शोधपूर्ण ग्रन्थ है। आपके शोध आलेख आपकी विद्वत्ता का उद्घाटन करते हैं। सम्प्रति एक छोटे से गाँव मंजला (शाहपुर) में जन्म लेकर उन्नति के शिखर पर पहुँचने की विधा ने सुदर्शन को प्रोफेसर सुदर्शन लाल के रूप में विख्यात कर दिया। पूरा परिवार शिक्षा के उत्कर्ष का आश्रय प्राप्त कर देश क्या विदेश में भी आपकी शालीनता, सहृदयता, सहजता का डंका पीट रही है। आप स्वस्थ्य एवं दीर्घायु हों। हे परवार जैन समाज के अग्रिम पंक्ति के पुरोधा है। विद्वत्ता के धनी आपकी सादगी के लिये नमन। पं. सुरेशचंद जैन प्रतिष्ठारत्न- प्रतिष्ठाचार्य, दमोह (म.प्र.) निरभिमानी गुरुदेव को प्रणाम भारतीय संस्कृति के संपोषक, संरक्षक, परम्परा के निर्वाहक, नियमित आचार पद्धति एवं संस्कारयुक्त जीवन शैली को जीवन्त करने के लिए संकल्पित भारत के गणमान्य विद्वानों में अग्रणी होने पर भी अभिमान न होना, न वैदुष्य का, न सत्ता का, न पद का, न धन का। प्रायः देखा जाता है कि विद्या के क्षेत्र में विशिष्ट ख्याति रखने वाले मनस्वी एवं तपस्वी व्यावहारिक एवं प्रशासनिक जीवन पर उतनी पकड़ नहीं रखते। किन्तु आदरणीय प्रो. सुदर्शन लाल जैन जी को देखकर ज्ञात हुआ कि आपके व्यक्तित्व में न केवल तपस्वी विद्वान् अपितु मनस्वी प्रशासक भी उतने ही प्रखर रूप में दिखाई देता है। आचार्य द्वारा जब ज्ञात हुआ कि अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है और उस ग्रन्थ में मुझे भी कुछ संस्मरण लिखना है, तब उस समय जो हर्षानुभूति हुई उसको वर्णित करना मेरे लिए असम्भव है। मैंने स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया कि मैं भी अपनी सुकुमार बुद्धि से अपने भावों को लिपिबद्ध कर कुछ प्रो. जैन जी के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर सकूँ। आप कर्म एवं भाग्य उभय सामञ्जस्य की डोर तथा नारिकेलफल सम्मित व्यवहाररूपी सोपान हैं। कुशल तथा उत्तम शिक्षक के साथ-साथ उदारता तथा महनीयता आपके जीवन में प्रकार गुम्फित है। जिस प्रकार रुद्राक्ष में 'शिवाक्षर मन्त्र' गुम्फित होता है। एक स्मृति है जो आजीवन मानसपटल पर छायी रहेगी। आर्य महिला में मुझे 'संस्कृत प्रवक्ता' पद हेतु साक्षात्कार में आमन्त्रित किया गया, वैसे साक्षात्कार की प्रकृति भयावह होती है किन्तु साक्षात्कार कक्ष में प्रवेश करते ही चिरपरिचित आकृति को देखकर मेरा सारा भय न जाने कहाँ लुप्त हो गया। आपका सौम्य मुख देखकर ढाढस मिला और आपका मात्र इतना ही कह देना कि यह तो 'अपनी ही शिष्या' है, मानसिक रूप से मुझे बल मिला और उसके बाद जो फल मिला उसके लिए सर मैं आपकी सर्वदा ऋणी रहूँगी। 94
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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