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________________ सिद्ध-सारस्वत इतना ही नहीं आपने गुणायतन निर्माण में स्वार्जित पुण्यशाली धनराशि प्रदान कर एक महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में गुणायतन से जुड़कर अपने जीवन को धन्य तो किया साथ ही परिवार को भी गौरवान्वित किया है। ऐसे बहुभाषाविद्, सरल एवं सुलझे व्यक्तित्व के धनी श्री सुदर्शनलाल जी के स्वर्ण जयन्ती वर्ष पर सादर नमन। पं. सुदर्शन जैन पिंडरई, मण्डला ऋषितुल्य महामानव अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः / / परम श्रद्धेय गुरुवर, प्रात:स्मरणीय, यशस्वी, सरस्वती के वरदपुत्र प्रो. सुदर्शन लाल जैन सर एक महान् व्यक्तित्व वाले, साम्यस्वभाव, जैन दर्शन के मूर्धन्य विद्वान्, ऋषितुल्य महामानव हैं। श्रद्धेय गुरुवर से हमारा साक्षात्कार जब में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय संस्कृत विभाग में परास्नातक प्रथमवर्ष (1999-2000)का छात्र था, तब हुआ। उसी समय से इनकी बड़ी महनीय कृपा हमारे ऊपर है। जब मैं संस्कृतविभाग में छात्र के रूप में पहुँचा तब उस समय वहाँ हमारा कोई पूर्व परिचित व्यक्ति या अध्यापक नहीं था। परम श्रद्धेय गुरुवर के ऋषि स्वभाव के कारण मैं इनके सान्निध्य में रहना पसन्द करता था। गुरुवर उस समय हमको कर्पूरमञ्जरी नामक एक प्राकृत सट्टक पढ़ाते थे। यह आज भी मुझको स्मरण है। इस स्मरण का कारण उनका प्राकृत भाषा के सरल एवं सारगर्भित अध्यापन को है। जो आज भी हमारे मानस पटल पर सजीव रूप से विद्यमान है। प्रातः स्मरणीय गुरुवर का विशेष सान्निध्य हमको सन् 2003 में मिला। जब यू.जी.सी. नेट परीक्षा उत्तीर्ण कर पी-एच.डी. में प्रवेश लेने हेतु पुनः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में पहुँचा। शोधकार्य किसी गुरु के निर्देशन में ही होता है। एक दिन की बात है जब मैं अशान्त मन से संस्कृत विभाग पहुँचा। उस समय गुरुवर प्रो. जैन सर संस्कृतविभाग के प्रमुख थे और विभाग में ही विराजमान थे। मैं अपने गुरुप्रेम स्वभाव से उनके पास गया, चरण स्पर्श किया और अशान्त मन उनके कक्ष से वापस होने को पीछे मुड़ा। तब तक गुरुवर सहसा बोल पड़े 'बेटा कोई काम है क्या ?' मैंने कातर मन से उनकी तरफ देखा और अशान्त मन की व्यथा उनसे कह दी। गुरुवर हंस पड़े और विभाग के बाबू ए.के.सिंह को आवाज लगा कर कहा कि सन्तोष के फार्म पर मेरा नाम लिख दो। उस समय मुझको अपार हर्ष का अनुभव हुआ। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे मरणासन्न को पुनः जीवन मिल गया हो। यह कहानी गुरुजी के सहृदयी स्वभाव एवं अनाथों के नाथ होने की है। पूज्य गुरुवर प्रो. जैन सर कुछ ही महिनों के पश्चात् बी.एच.यू. कला सङ्काय के प्रमुख हो गये। कार्याधिकता से व्यस्त रहने लगे, किन्तु उस व्यस्त समय में भी इनकी कृपा हमारे ऊपर बनी रहती थी। इनके कुशल निर्देशन में हमारा शोध-कार्य अतिशीघ्र पूर्ण हो गया। पद से सेवा निवृत्त होने के पश्चात् जब आप पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी में प्रधान के रूप में अपनी सेवा देने गये तो उस समय हमको इनकी कृपा से ही सभी दर्शनों को समझने की सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त हुई। आपकी कृपा से जैनदर्शन के अनेक शोध सङ्गोष्ठियों एवं वर्कशाप में प्रतिभाग करने का सुअवसर मिला। पूज्य गुरुवर प्रो. जैन सर की महिमा एवं कृपा का वर्णन मैं अपनी अल्पबुद्धि से नहीं कर सकता। हमारा अन्त:करण इनकी कृपा का साक्षी एवं सदैव ऋणी है। मैं आज जो कुछ भी हूँ सब केवल उन्हीं की कृपा का फल है। मैं हृदय की गहराइयों से गुरुवर का स्वागत, कोटि-कोटि वन्दन एवं अभिनन्दन करता हूँ। अस्तु, अन्त में केवल इतना ही कहूँगा कि - अज्ञान-तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः / / डॉ. सन्तोष कुमार पाण्डेय प्रवक्ता, संस्कृत, बाबा बहुआदास पी.जी.कालेज, अम्बेडकर नगर 93
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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