________________ 74 देव, शास्त्र और गुरु (1) स्त्री-संसर्ग की अपेक्षा- (क) काष्ठ, पाषाण तथा चित्रों में तीन प्रकार की अचेतन स्त्रियाँ - मन, काय (वचन नहीं) x कृत, कारित, अनुमोदना x पाँच इन्द्रियाँ x द्रव्य, भावX क्रोध, मान, माया लोभ ये चार कषाय - 720 (34243454244= 720) भेद। ये अचेतन स्त्री-संसर्ग की अपेक्षा से भेद हैं। (ख) देवी, मानुषी तथा तिर्यञ्चिनी ये तीन प्रकार की चेतन स्त्रियाँ x मन, वचन, काय x कृत, कारित, अनुमोदना x पंचेन्द्रियाँ x द्रव्य, भाव x आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ये चार संज्ञायें x सोलह कषाय 17280 (343x 3 x 5 x 2 x 4x16-17280) ये चेतन स्त्री-संसर्ग की अपेक्षा से शील के भेद हैं। कुल योग- 720 + 17280 - 18000 भेद (शील-गुण)। (2) स्वद्रव्य-परद्रव्य के विभाग की अपेक्षा शील के भेद- मन, वचन, काय- ये तीन शुभ क्रिया-योग (मन, वचन, काय का शुभकर्म के ग्रहण करने के लिए होने वाले व्यापार को योग कहते हैं)x इन्हीं के अशुभात्मक प्रवृत्ति रूप तीन करण x आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञायें x स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु, कान ये पाँच इन्द्रियाँ x पृथिव्यादि दस प्रकार के जीव (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय) x दस धर्म (उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य, ब्रह्मचर्य) = 18000(3 x 3 x 4xx 10 x 10 = 18000) शील के भेद। उत्तरगुण (चौरासी लाख उत्तरगुण) उत्तरगुणों की संख्या निश्चित नहीं रही है। प्रसिद्धि के अनुसार चौरासी लाख उत्तरगुणों की गणना निम्न प्रकार है 5 पाप + 4 कषाय + 4 दोष (जुगुप्सा, भय, रति और अरति) + 3 मन, वचन, काय की दुष्टतायें + 5 दोष (मिथ्यात्व, प्रमाद, पिशुनत्व, अज्ञान, पंचेन्द्रियनिग्रह)- इस तरह 21 दोष x अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार दोष x 100 पृथिवी आदि जीवसमास x10 अब्रह्म (शील-विराधना) के दोष x 10 आलोचना दोष 410 उत्तम क्षमादि या प्रायश्चित्तादि शुद्धि 1. मूलाचार 1025, मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ०१६१-१६४, दर्शनपाहुड-टीका 9/8/18, तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) के भेदों के विपरीत दोष = 84 लाख (21 444100 x 10x10x10 -8400000) दोष। इन चौरासी लाख दोषों के विपरीत चौरासी लाख उत्तरगुण जानना चाहिए। वस्तुतः बारह तप, बाईस परीषहजय, बारह भावनाएं, पाँन आचार, दश उत्तम-क्षमादि धर्म तथा शील आदि सभी गुण उत्तरगुणों में अन्तर्निहित हैं और ये मूलगुणों के पोषक हैं निषिद्ध-कार्य (1) शरीर-संस्कार- पुत्रादि में स्नेहबन्धन से रहित तथा अपने शरीर में भी ममत्व से रहित साधु शरीर-सम्बन्धी कुछ भी संस्कार नहीं करते। नेत्र, दांत, मुख आदि का प्रक्षालन करना, उबटन लगाना, पैर धोना, अंग-मर्दन करना, मुट्ठी से शरीर-ताडन करना, काष्ठ से पीड़ना, धूप से सुवासित करना, विरेचन करना (दस्त हेतु दवा आदि लेना), कण्ठ-शुद्धिहेतु वमन करना, अंजन लगाना, सुगन्धित तैलादि का मर्दन करना, लेप करना, सलाई बत्ती आदि से नासिकाकर्म एवं वस्तिकर्म (एनीमा) करना, शिरावेध (नसों को बेधकर रक्त निकालना) आदि सभी प्रकार के शरीर-संस्कार साधु के लिए निषिद्ध हैं।' (2) अमैत्री-भाव-जो साधु मैत्रीभाव-रहित हैं वे कायोत्सर्ग आदि करके भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। अतएव साधु को सबके प्रति मैत्रीभाव रखना चाहिए। (3) क्रोधादि- क्रोध करना, चंचल होना, चारित्रपालन में आलसी होना, पिशुनस्वभावी होना, गुरुकषाय (तीव्र एवं दीर्घकालिक कषाय) होना- ये सब साधु को त्याज्य हैं। 1. ते छिण्ण-णेहबंधा णिण्णेहा अप्पणो सरीरम्मि। ण करंति किंचि साहु परिसंठप्पं सरीरम्मि।। 838 मुह-णयण-दंतधोयणमुन्नट्टण-पादधोयणं चेव। संवाहण-परिमद्दण-सरीरसंठावणं सच।। 839 धूवणवमण-विरेयण-अंजण-अब्भंगलेवणं चेव। णत्युय-वस्थियकम्मं सिरवेज्झं अप्पणो सव्वं।। -मू०आ०८४० 2. किं तस्स ठाणमोणं किं काहदि अब्भोवगासमादावो। मेत्तिविहूणो समणो सिज्झदि ण हु सिद्धिकंखो वि।। -मू०आ० 926 3. चंडो चवलो मंदो तह साहू पुट्ठिमंस-पडिसेवी। गारवकसायबहुलो दुरासओ होदि सो समणो।। -मू०आ० 957