________________ 46 देव, शास्त्र और गुरु कन्नड़, तमिल, मराठी आदि विविध भाषाओं में हैं। सभी आचार्यों में श्रुतधराचार्यों और सारस्वत आचार्यों के ग्रन्थ अन्य की अपेक्षा अधिक मूल आगमग्रन्थों के निकट हैं तथा प्रामाणिक हैं। प्रथमानुयोग के ग्रन्थों में कथादि के माध्यम से मूलसिद्धान्तों को समझाया गया है। उनके काव्यग्रन्थ होने से उनमें अलंकारिक प्रयोग भी हैं। अतः यथार्थ पर ही दृष्टि होना चाहिए। तृतीय अध्याय गुरु (साधु) अविरलशब्दघनौघा प्रक्षालितसकलभूतलमलकलङ्का / मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरुतान् / / यदीया वाग्गङ्गा विविधनयकल्लोलविमला बृहज्ज्ञानाम्भोभिर्जगति जनतां या स्पयति / इदानीमप्येषा बुधजनमरालैः परिचिता महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु नः / / प्रस्तावना : 'गुरु' शब्द का अर्थ : लोकव्यवहार में सामान्यतः अध्यापकों को 'गुरु' कहा जाता है। माता-पिता आदि को भी गुरु कहते हैं। लोक में कई तरह के गुरु देखने को मिलते हैं जिनका विचारणीय गुरु से दूर तक का भी सम्बन्ध नहीं है। वास्तव में 'गरु' शब्द का अर्थ है 'महान्'। 'महान' वही है जो अपने को कृतकृत्य करके दूसरों को कल्याणकारी मार्ग का दर्शन कराता है। जब तक व्यक्ति स्वयं वीतरागी नहीं होगा तब तक वह दसरों को सदपदेश नहीं दे सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि गुरु जब मुख से उपदेश देवे तभी गुरु है अपितु गुरु वह है जो मुख से उपदेश दिये बिना भी अपने जीवनदर्शन द्वारा दूसरों को सन्मार्ग में लगा देवे। परमगुरु अर्हन्त (तीर्थङ्कर तथा अन्य जीवन्मुक्त) और सिद्ध भगवान् जो अपने अनन्त ज्ञानादि गुणों से तीनों लोकों में महान् हैं, वे ही 'त्रिलोकगुरु' या 'परमगुरु' कहे जाते हैं। इनमें गुरु के रूप में तीर्थङ्करों का विशेष महत्त्व है क्योंकि उनका उपदेश हमें प्राप्त होता है। वे देवाधिदेव हैं तथा परमगुरु भी हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरु हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रलत्रय के द्वारा जो महान् बन चुके हैं उन्हें 'गुरु' कहते हैं। ऐसे गुरु हैं, आचार्य, उपाध्याय और साधु, ये तीन परमेष्ठी। पाँच महाव्रतों के धारी, मद का मन्थन करने वाले तथा क्रोध 1. अनन्तज्ञानादिगुरुगुणैबैलोकस्यापि गुरुस्तं त्रिलोकगुरुं तमित्थं भूतं भगवन्तं...। -प्र. सा., ता. वृ. 79 प्रक्षेपक गाथा 2/100/24 अर्थाद् गुरुः स एवास्ति श्रेयोमार्गोपदेशकः। भगवांस्तु यतः साक्षात्रेता मोक्षस्य वर्त्मनः। - पं. अ., उ. 620 2. सुस्सूसया गुरूणं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्गुरुतया गुरव इत्युच्यन्ते आचार्योपाध्यायसाधवः / - भ. आ./वि०/३००/५११/१३