________________ देव, शास्त्र और गुरु अधिक होती है तब केवली आयु कर्म की स्थिति और शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति को बराबर करने के लिए समुद्घात करते हैं। समुद्घात में मूल शरीर को न छोड़कर मात्र तैजस्और कार्मणरूप शरीर के साथ जीवप्रदेशशरीर से बाहर निकलते हैं पश्चात् मूलशरीर में उन जीवप्रदेशों का पुनः समावेश होता है। ५.दिव्यध्वनि का खिरना-केवलज्ञान होने के पश्चात् अर्हन्त भगवान् के सर्वाङ्ग से जो ओंकाररूप ध्वनि खिरती है उसे 'दिव्यध्वनि' कहते हैं। यह गणधर की उपस्थिति में ही खिरती है, अनुपस्थिति में नहीं। भगवान् में इच्छा का अभाव होते हुए भी यह दिव्यध्वनि भव्य जीवों के पुण्य के प्रभाव से खिरती है। यह दिव्यध्वनि मुख से ही खिरती है या मुख के बिना खिरती है,? भाषात्मक है या अभाषात्मक है? आदि के सम्बन्ध में जो आपेक्षिक कथन मिलते हैं उनका नय की अपेक्षा से समाधान कर लेना चाहिए। 6. मृत शरीर-सम्बन्धी दो धारणाएँ तथा शरीर-मुक्त आत्मा की स्थिति- आयु की पूर्णता होने पर मृतशरीर-सम्बन्धी दो मत पुराणों में मिलते हैं जिनका स्वविवेक से समाधान अपेक्षित है। इतना निश्चित है कि लोकाकाश की समाप्ति तक मुक्तात्मा का ऊर्ध्वगमन होता है तथा मुक्तात्मा के प्रदेश न तो अणुरूप होते हैं और न सर्वव्यापक अपितु चरमशरीर से कुछ कम प्रदेश होते हैं। 7. विहारचर्या - केवली में इच्छा का अभाव होने से उनका विहार अबुद्धिपूर्वक स्वाभाविक माना गया है। सम्पूर्ण केवलज्ञान-काल में वे एक आसन प्रथम अध्याय : देव (अर्हन्त-सिद्ध) पर स्थित रहते हुए विहार, उपदेश आदि करते हैं। जिस एक हजार पाखुड़ी वाले स्वर्णकमल पर चार अंगुल ऊपर स्थित रहते हैं, वही कमलासन या पद्मासन है। वस्तुतः अर्हन्त भगवान् का गमन चरणक्रम-संचार से रहित होता है। पैरों के नीचे कमलों की रचना देवकृत अतिशय है। स्तोत्र एवं भक्ति ग्रन्थों में इसी अतिशय का वर्णन मिलता है; जैसे हे जिनेन्द्र! आप जहाँ जहाँ अपने दोनों चरण रखते हैं वहाँ वहाँ ही देवगण कमलों की रचना कर देते हैं। सिद्ध (विदेहमुक्त) सिद्धावस्था की प्राप्ति कब? ___चारों घातिया कर्मों के निर्मूल (पूर्णतः नष्ट) होने पर शुद्धात्मा की उपलब्धिरूप (निश्चय-रलत्रयात्मक) जीवपरिणाम को 'भावमोक्ष' कहते हैं। जीवन्मुक्त अर्हन्त या भावमोक्ष-अवस्था को धारण करते हैं। भावमोक्ष के निमित्त से शेष चार अघातिया कर्मों के भी समूल नष्ट हो जाने पर (जीव से समस्त कर्म के निरवशेष रूप से पृथक् हो जाने पर) 'द्रव्यमोक्ष' होता है। यह द्रव्यमोक्ष की अवस्था ही 'सिद्धावस्था' है। आयु के अन्त समय में अर्हन्तों का परमौदारिक शरीर जब कपूर की तरह उड़ जाता है तथा आत्मप्रदेश ऊर्ध्वगति-स्वभाव के कारण लोकशिखर पर जा विराजते हैं, तभी सिद्धावस्था कहलाती है। सिद्धों के सुखादि सिद्ध अनन्तकाल तक अनन्त अतीन्द्रिय सुख में लीन रहते हैं। ज्ञान ही उनका शरीर होता है। वे न तो निर्गुण हैं और न शून्य। न अणुरूप हैं और न सर्वव्यापक, अपितु आत्मप्रदेशों की अपेक्षा चरम-शरीर (अर्हन्तावस्था का शरीर) के आकाररूप में रहते हुए जन्म-मरण के भवचक्र से हमेशा के लिए मुक्त हो 1. प्रचार प्रकृष्टोऽन्यजनासंभवो चरणक्रमसंचाररहितश्चारो गमनं तेन विजृम्भितौ विलसितौ शोभितौ। -चैत्यभक्ति, टीका,१. 2. पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्तः, पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति।। - भक्तामरस्तोत्र३६ तथा देखिए, स्वयम्भूस्तोत्र 108, हरिवंशपुराण, 3/24, एकीभावस्तोत्र 7. 3. कर्मनिर्मूलनसमर्थः शुद्धात्मोपलब्धिरूपजीवपरिणामो भावमोक्षः, भावमोक्षनिमित्तेन जीव कर्मप्रदेशानां निरवशेषः पृथग्भावो द्रव्यमोक्ष इति।-पं०का०,ता०वृ० 108/173/10; भ०आ० 38/134/18, नयचक्र बृहत् 159. 1. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग 2, पृ. 166-169. 2. वही, पृ० 430-433. 3. अर्हन्त के मृतशरीर-सम्बन्धी दो पौराणिक मत- हरिवंश पुराण में आया है- 'दिव्य गन्ध, पुष्प आदि से पूजित तीर्थङ्कर आदि के मोक्षगामी जीवों के शरीर क्षणभर में बिजली की तरह आकाश को दैदीप्यमान करते हुए विलीन हो जाते हैं। (2) महापुराण (47.343350) में भगवान् ऋषभदेव के मोक्षकल्याणक के अवसर पर अग्निकुमार देवों ने भगवान् के पवित्र शरीर को पालकी में विराजमान किया। पचात् अपने मुकुटों से उत्पन्न की गई अग्नि को अगरु, कपूर आदि सुगन्धित द्रव्यों से बढ़ाकर उसमें भगवान् के शरीर को समर्पित कर उसे दूसरी पर्याय प्राप्त करा दी। ............. तदनन्तर भगवान् के शरीर की भस्म को उठाकर अपने मस्तक पर, भुजाओं पर, कण्ठ में तथा हृदयदेश में भक्तिपूर्वक स्पर्श कराया। 4. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग 3, पृ. 328, तथा देखें, सिद्धों का प्रकरण। 5. जिनसहस्रनाम (ज्ञानपीठ प्रकाशन) पृ. 167, 183.