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________________ EUR जैन धर्म के अकाद्य सिद्धांत ) सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तारक तीर्थंकर परमात्माओं ने केवलज्ञान के बल से जगत् के यथार्थ स्वरूप को जानकर, जगत् के जीवों के हित के लिए जगत् के यथार्थ स्वरूप का निरूपण किया है / वे परमात्मा वीतराग होने के कारण उन्हें किसी प्रकार का कदाग्रह नहीं था और सर्वज्ञ होने के कारण उन्होंने जो कुछ कहा, वह सत्य ही कहा है / वर्षों पूर्व सर्वज्ञ-कथित जिनवचनों को संदेह की नजर से देखा जाता था, आज वैज्ञानिक शोधों के आधार पर उन्हीं सत्यों को सहर्ष स्वीकार किया जा रहा है। नैयायिक दर्शन 'शब्द' को आकाश का गुण मानता है और विज्ञान 'शब्द' ध्वनि को शक्ति रूप मानता था, परंतु जैन दर्शन शब्द को 'पुद्गल' स्वरूप ही कहता था / आज रेडियो, टेलीफोन, टेपरिकार्डर आदि शोधों से जैन दर्शन में निर्दिष्ट यह बात स्वतः सिद्ध हो गई है / भिद्यमान अणुओं के ध्वनिरूप परिणाम को शब्द कहा जाता है / ध्वनि के ये पुद्गल-स्कंध इतने अधिक सूक्ष्म होते हैं कि उन्हें आँखों से देखा नहीं जा सकता है, परंतु उसके कार्य से उसके अस्तित्व का अनुमान किया जा सकता है। शब्द रूप पुद्गल स्कंधों को दूसरे पदार्थ पर संस्कारित भी कर सकते हैं, इसी कारण ग्रामोफोन द्वारा उन संस्कारित शब्दों को वापस सुन सकते श्रोत्रेन्द्रिय प्राप्यकारी इन्द्रिय है / निर्वृत्ति-इन्द्रिय में प्रविष्ट शब्द को ही हम सुन सकते है / श्रोत्रेन्द्रिय की ग्राह्य शक्ति 12 योजन की है / 12 योजन से अधिक दूरी पर रहे शब्द पुद्गल तथा स्वभाव से ही मंद परिणाम वाले हो जाते हैं, इस कारण वे शब्द , ज्ञान को उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाते हैं / श्रोत्रेन्द्रिय की भी अपनी मर्यादित शक्ति है, इस कारण 12 योजन से अधिक कर्मग्रंथ (भाग-1)) 6 37
SR No.035320
Book TitleKarmgranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2019
Total Pages224
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size39 MB
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