________________ बस, इसी प्रकार वर्तमान जीवन में आनेवाले सुख-दुःख के आधार पर अनुमान करते हैं कि पूर्व भव में पुण्य कर्म या पाप कर्म किया होगा | किसी भी कार्य की उत्पत्ति में दो प्रकार के कारण होते हैं 1) उपादान कारण और 2) निमित्त कारण / / जो कारण स्वयं कार्य रूप में परिणत होते हैं; उन्हें उपादान कारण कहा जाता है / जैसे-लकड़ी में से टेबल बनता है तो लकड़ी टेबल का उपादान कारण है। 2) जो कारण कार्य की उत्पत्ति के बाद स्वयं दूर हो जाय, उसे निमित्त कारण कहा जाता है। जैसे-मिट्टी में से घड़ा बनाने के बाद कुंभार उस मिट्टी से अलग हो जाता है। राग-द्वेष के अध्यवसायों द्वारा आत्मा शुभ-अशुभ कर्म का बँध करती है और उस कर्म के उदय से आत्मा सुख-दुःख प्राप्त करती है / अतः सुख दुःख की प्राप्ति में आत्मा के अध्यवसाय अर्थात् भावकर्म, उपादान कारण है और उन अध्यवसायों से जिन कर्म परमाणुओं का बंध होता है, वे द्रव्य कर्म है। कर्म का बंध, शरीर को नहीं, बल्कि आत्मा को ही होता है, इसी कारण एक गति से दूसरी गति में जाने के बाद भी वे कर्म आत्मा के साथ चलते हैं। दोष से भी दोष का पक्षपात ज्यादा भयंकर है | दोष-सेवन के बाद जिसके दिल में तीव्र पश्चात्ताप का भाव पैदा हो जाता है, वह भी भव सागर से पक्षपात पार उतर जाता है / दोष का त्याग न कर सके तो कम से कम / दोष का पक्षपात तो कदापि नहीं होना चाहिए / कर्मग्रंथ (भाग-1) EN36