SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाँचवाँ आयुष्य कर्म) ..................... सुर-नर तिरि निरयाऊ, हडि सरिसं नामकम्म चित्तिसमं / बायाल-ति-नवइ-विहं, ति उत्तर सयं च सत्तही / / 23 / / शब्दार्थ सुर-देव, नर=मनुष्य , तिरि तिर्यंच, निरयाऊ-नारक का आयुष्य, हडिसरिसं बेड़ी के समान, नामकम्म नाम कर्म, चित्तिसमं चित्रकार के समान, बायाल=बयालीस, तिनवइ-तिरानवे , तिउत्तरसयं एक सौ तीन, सत्तट्ठी सड़सठ / गाथार्थ देव, मनुष्य , तिर्यंच और नारक के भेद से आयुष्य कर्म चार प्रकार का है / इसका स्वभाव बेड़ी समान है / नामकर्म का स्वभाव चित्रकार के समान है और उसके बयालीस, तिरानवै, एकसौ तीन और सड़सठ भेद होते है / विवेचन आत्मा का मूलभूत स्वभाव अजर, अमर और अविनाशी है / जन्म लेना, मरना , वृद्धावस्था प्राप्त करना इत्यादि आत्मा का स्वभाव नहीं है / अजन्मा स्वभाव वाली आत्मा को नए-नए जन्म लेने पड़ते हैं, अमर ऐसी आत्मा को बारबार मरना पड़ता है और अजर ऐसी आत्मा को बारबार वृद्धावस्था की पीड़ाएँ सहन करनी पड़ती हैं, यह सब अपनी आत्मा के लिए कलंक समान है। मुक्त आत्माएँ सदा काल के लिए जन्म, जरा और मरण के बंधन से मुक्त होती हैं, जबकि संसारी आत्माओं को बारबार जन्म-मरण करना पड़ता है / संसार में कहाँ जन्म लेना , यह भी अपनी इच्छा के अधीन नहीं है / इच्छा नहीं होते हुए भी एक चक्रवर्ती को नारक के रूप में जन्म लेना पड़ता है, एक सेनापति को पशु के रूप में जन्म लेना पड़ता है | कर्मग्रंथ (भाग-1) 1488
SR No.035320
Book TitleKarmgranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2019
Total Pages224
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy